पूर्वी मिथिलांचल (पूर्णियाँ) को
सामन्त और अभिजात्य वर्ग का देन
संक्षिप्त इतिहास
आलेख
गिरिजानन्द सिंह
15-12-2011
मुगल-शासन काल में पूर्णियाँ का नाम एक सीमावर्ती सैनिक
प्रान्त के रुप में सामने आया जहाँ के शासन की बागडोर एक फौजदार को सौंप दी गई थी।
रुतबे और सामथ्र्य की दृष्टि से एक फौजदार का पद सूबेदार से किंचित ही न्यून था।
पूर्णियाँ, एक तरह से फौजदार की जागीर थी जिसका अधिकांश आय, उस सीमावर्ती
सैनिक प्रान्त की सुरक्षा और फौजदार के निजी भत्ते के रुप में उपभोग में लाया जाता
था। आइने अकबरी से प्राप्त सूचना के अनुसार, महानंदा नदी के
पूर्वी ओर का, सरकार-तेजपुर का इलाका और पष्चिमी तरफ का, सरकार-पुर्णियाँ
का इलाका ही पुर्णियाँ क्षेत्र है। इसके अलावा सरकार-औदुम्बर का दो महाल और
सरकार-लखनौती का एक महाल भी पुर्णियाँ के अंतर्गत पड़ता था। ये सभी प्रदेश
बंगाल-सूबे के अधीन थे।
सूबे का सुगठित प्रशासन, काफी हद तक इन
सीमावर्ती सैनिक प्रान्तों की राजनैतिक और सामरिक स्थिरता पर निर्भर थी। अतः हरएक
फौजदार नवाब के लिये यह आवश्यक था कि जिले के सभी इलाके ऐसे कुशल और समर्थ
ज़मीन्दारों के अधीन रहें जो न केवल कृषि-विकास के माध्यम से राजस्व की निश्चित रकम
का समय पर भुगतान करें बल्कि अपने क्षेत्र में अमन चैन स्थापित रख कर सरकार की मदद
कर सकें।
पूर्णियाँ में मुगल काल से ही फौजदार
नवाबों के अधीन कई ज़मीन्दार, जागीरदार, और ताल्लुकेदार हुआ करते थे। इनमें से कई चौधरी, राजा, महाराजा और नवाब
के नाम से जाने जाते थे। कुछ उपाधियाँ बादशाह द्वारा प्रदत्त थीं तो कुछ बंगाल के
नवाब ने दिया था। हाँ, इनमें से कुछ उपाधियाँ लोक प्रदत्त भी थीं। कई ज़मीन्दार
अपने नाम के अंत में स्वयं ही राय, सिंह, और चौधरी आदि जोड़ लेते थे।
1793 ई0 में पूर्णियाँ के
जिन ज़मीन्दारों ने काॅर्नवाॅलिस के स्थायी प्रबंध के अंतर्गत् अपने इलाकों का
बंदोबस्त करवाया उनमें सौरिया की रानी इन्द्रावती देवी, धर्मपुर के राजा
माधव सिंह, सुरजापुर के फख्रुद्दीन हुसैन और तीराखारदह के राजा दुलार सिंह का नाम प्रमुख
है। इसके अलावा और भी कुछ ऐसे ज़मीन्दार थे जिनके घराने का ज़िक्र किये बिना
पूर्णियाँ का इतिहास अधूरा रह जाएगा। जैसे- मालद्वार और नज़रगंज। कुछ यूरोपियन अथवा
अंग्रेज़ ज़मीन्दार भी थे।
पूर्णियाँ के नवाब-वंश के ज़मीन्दार
पूर्णियाँँ के अंतिम फौजदार नवाब थे मुहम्मद अली खाँ। उनके
बेटे अहमद अली खाँ और पोते आग़ा सैफ़उल्लाह खाँ पूर्णियाँँ सिटी के ज़मीन्दार हुए।
सैफ़उल्लाह खाँ के वंशजों में बीबी कमरूनिस्सा और सैयद असद रज़ा का नाम पूर्णियाँँ
के नवाब खानदान के उत्तराधिकारियों के रूप में जाना जाता है। इस घराने के द्वारा
बनवाया गया छःगुंम्बदों वाला मस्जिद, स्थापत्य-विलक्षणता की दृष्टिकोण से आज
भी दर्शनीय है। उल्लेखनीय है कि पूर्णियाँँ रेलवे-स्टेशन का निर्माण, सैयद असद रज़ा
द्वारा प्रदत्त भूमि पर हुआ है।
पुरनिया राजा- सौरिया और पहसरा
सत्रहवीं शती के उत्तरार्ध में पूर्णियाँॅं में सौरिया({सुरगण} नामक एक मैथिल ब्राह्मण-राजवंश की स्थापना हुई थी जो
पुरैनिया राज के नाम से लोकप्रसिद्ध था। समरू राय {समर सिंह} इसके संस्थापक
हुये। समरू राय के बाद क्रमशः कृष्णदेव, विश्वनाथ, वीरनारायण,
नरनारायण, रामचंद्रनारायण और
इन्द्रनारायण ने राज्य किया और सभी राजा की उपाधि से विभूषित थे। राजा कृष्णदेव के
उत्तराधिकारियों का राज्य पहसरा शाखा कहलाया और कृष्णदेव के भाई राजा भगीरथ के
उत्तराधिकारी सौरिया शाखा के नाम से प्रसिद्ध हुये। तत्कालीन पूर्णियाँँ के पहसरा
नामक स्थान में राजा कृष्णदेव का मुख्यालय था और यह राज्य पूर्णियाँॅं के फौजदार
नवाब के अधीन था। इस वंश के अंतिम राजा, इन्द्रनारायण राय ने कसबा के निकट मोहनी
में अपना नया मुख्यालय बनाया। इन्द्रनारायण राय निःसंतान थे। 1784 ई0 में, उनकी मृत्यु के
बाद उनकी पत्नी रानी इन्द्रावती ने शासन की बागडोर संभाली और 1793 ई0 में लाॅर्ड
काॅर्नवालिस के स्थायी प्रबंध के अंतर्गत अपने इलाकों का ज़मीन्दारी बंदोबस्त
करवाया। उस समय वे पूर्णियाँॅं की सबसे बड़ी ज़मीन्दार रानी थीं और सुल्तानपुर,
श्रीपुर, नाथपुर, फतेहपुर सिंघिया,
कटिहार, कुमारीपुर,
गोरारी, हवेली, और आलमगंज परगने
की मालकिन थीं। परंतु 1803 ई0 में उनकी मृत्यु के बाद उत्तराधिकार को लेकर विवाद छिड़ गया
और इस्टेट का एक बड़ा अंश उत्तराधिकार के मुकदमे की बलि चढ़ गया। रानी इन्द्रावती ने
अपने ममेरे भाई, भइयाजी झा को उत्तराधिकारी बनाया तो था लेकिन अपर्याप्त
साक्ष्य के अभाव में सौरिया शाखा के दावेदारों ने मामला दायर कर दिया। यद्यपि
दोनों ही दावेदारों को इस्टेट में कुछ हिस्सा मिला परंतु एक बड़ा भाग लंबे मुकदमे
के दौरान मुर्षिदाबाद के बाबू प्रताप सिंह और पूर्णियाँॅं सिटी के बाबू नकछेदलाल
के नाम हस्तांतरित हो गया।
1850 ई0 में राजा भइयाजी
झा की मृत्यु के बाद उनके पुत्र विजयगोविन्द सिंह राजा हुये। उन्हों ने फरकिया और
गुणमंती में अपना मुख्यालय बनाया। परंतु विजयगोविंद अपनी ज़मीन्दारी संभाल न सके और
अपने मैनेजर मिस्टर पामर द्वारा छले गये। सूर्यास्त कानून के अंतर्गत उनकी
ज़मीन्दारी नीलाम हो गई। विजयगोविंद के दोनों पुत्र, कुँवर विजयगोपाल
और कुँवर भवगोपाल के पुत्र संतति न होने के कारण यह वंश समाप्त हो गया।
कृष्णदेव के भाई
राजा भगीरथ राय के वंशजों में रघुदेव राय, वसुदेव नारायण राय, उत्तमनारायण राय
और चंद्रनारायण राय क्रमशः राजा कहलाए। चंद्रनारायण के बड़े पुत्र राजा श्रीनारायण
के दो पुत्र हुये-राजा राजेन्द्रनारायण और राजा महेन्द्रनारायण। महेन्द्रनारायण
राय ने कटिहार में अपनी राजधानी बनाई। उन्होंने 1854 ई0 में एक भव्य महल
बनवाया था जो डच स्थापत्य शैली का एक अनूठा उदाहरण था। राजा महेन्द्र नारायण ने एक
काली मंदिर भी बनवाया। कहा जाता है कि प्रतिदिन, महल की खिड़की से
ही राजा, माँ काली के दर्शन करते और उनकी पत्नी, रानी महेश्वरी देवी,
महल के छत से
सुदूर गंगा के दर्शन करती थीं। वर्तमान में, यह मंदिर राजा के
वारिस, मिश्र-वंश की कुल-देवी के रूप में विख्यात है। राजा के कोई संतान न थी।
अतःउन्होंने रानी महेश्वरी के भतीजे, दयानाथ मिश्र के पुत्र बाबू दीनानाथ
मिश्र को गोद लिया। इस प्रकार दीनानाथ के वंशज राजा महेन्द्रनारायण राय के मुख्य
उत्तराधिकारी हुए। मिश्र-वंश में बाबू उमानाथ मिश्र प्रमुख हुये। कटिहार का महेश्वरी
अकादमी स्कूल, उमादेवी मिश्रा बालिका विद्यालय, बड़ी बाज़ार की यज्ञशाला
और दुर्गास्थान की भू-संपत्ति उन्हीं की देन है।
राजा
राजेन्द्रनारायण राय सौरिया में ही रहे। चंद्रनारायण के छोटे पुत्र राजा देवनारायण
के दो पुत्र हुये-राजा रामनारायण और राजा रूपनारायण।
कटिहार के सिंह-झा
घराने के पूर्वजों में धीरनाथ सिंह झा और उनके पुत्र कुमर, मूलतःउत्तरी
पूर्णियाँ के निवासी थे। कुमर और उनके पुत्र घनश्याम ने लकड़ी के व्यापार से प्रचुर
संपदा एकत्रित कर ली थी और ‘लक्षेश’ कहलाते थे। बाबू घनश्याम सिंह झा, सौरिया की रानी
लीलावती के ट्रस्टी थे। बाद में उन्हें भी राजा महेन्द्र नारायण की ज़मीन्दारी का
कुछ अंश प्राप्त हुआ। घनश्याम के वंशजों में उनके पौत्र बाबू दीनानंद सिंह झा {छीतन} प्रमुख हुये।
सुरगण राजवंश
द्वारा कई मंदिरों का निर्माण किया गया। आज प्रायः ये सभी मंदिर मूल पूर्णियाँँ के
विभाजन के फलस्वरूप जिले से बाहर अवस्थित हैं। इनमें से रानी इन्द्रावती द्वारा 1797 ई0 में निर्मित
बसैटी का शिव मंदिर, 1822 ई0 में रानी लीलावती
द्वारा निर्मित कटिहार का शिव मंदिर,रानी सिद्धिवती द्वारा बनवाया गया सौरिया
का मंदिर, चंद्रनारायण द्वारा बनवाया गया कदवा का मंदिर, भमरैली का काली
मंदिर, राजेन्द्रनारायण द्वारा बनवाया गया भारीडीह का शिव मंदिर और मोहनी({कसबा} का मंदिर
उल्लेखनीय है। बसैटी और कटिहार {मंगल बाजार} का शिव मंदिर तत्कालीन स्थापत्य कला के अनूठे नमूने के रूप
में आज भी दर्शनीय है।
दरभंगा राज
1793 ई0 में लाॅर्ड
काॅर्नवालिस के स्थायी प्रबंध के समय पूर्णियाँॅं के ज़मीन्दारों में राजा माधव
सिंह एक प्रमुख व्यक्ति थे। यद्यपि उनका मुख्यालय दरभंगा में था, धर्मपुर परगने के
ज़मीन्दार के रूप में पूर्णियाँॅं की भूमि पर लगभग 1000 वर्गमील में उनका
आधिपत्य था। वर्तमान पूर्णिया शहर के महाराजीय अहाते में उनका भव्य महल था जो १९३४
के महाभूकंप में धराशायी हो गया।. यद्यपि दरभंगा के महाराजा मिथिलेश कहलाते थे और
उनके द्वारा कई सामाजिक कल्याण-कार्य संपादित होता रहा लेकिन पूर्वी मिथिलांचल में
उनका योगदान नगण्य ही रहा। इतना ही नही, राजा माधव सिंह ने पूर्णिया के नशीरा
क्षेत्र में बसे हुए बुद्धिजीवी श्रोत्रियों को आर्थिक और सामाजिक प्रलोभन दे कर
दरभंगा के निकट गावों में बसाया और इस प्रकार पूर्णिया के बौद्धिक क्षरण के भी
कारण बने ।
बनैली राज
बनैली राज की
विस्तृत चर्चा किये बिना पूर्णियाँॅं का इतिहास अधूरा माना जायेगा। इस मैथिल
ब्राह्मण-वंश के शासकों और ज़मीन्दारों ने 250 वर्षेां के अपने
कार्यकाल में पूर्णियाँँ-भूमि की, न केवल अविस्मरणीय सेवा की बल्कि पूर्णियाँँ के राजनैतिक,
आर्थिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक
विकास के प्रति, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष, दोनों ही प्रकार
से योगदान करके अपनी दूरदर्शिता का प्रमाण भी दिया।
बनैली घराने का नाम 1700 ई0, के आसपास इतिहास
के पन्नों पर उभर कर सामने आया और कालक्रम में बनैली राजवंश और श्रीनगर राजवंश के
रुप में विख्यात हुआ। पूर्णियाँ जिलांतर्गत स्थित प्राचीन बनैली नामक ग्राम से ही
इस इस्टेट का नामकरण हुआ। इस जिले के बनैली, रामनगर, चम्पानगर, गढ़बनैली और
श्रीनगर में, और भागलपुर के सुल्तानगंज में इस राजवंश का मुख्यालय था। इन स्थानों पर इस राजवंश की
पुरानी ड्योढ़ी-हवेली और भव्य मंदिर आज भी बीते युग की याद दिलाते हैं। तत्कालीन
स्थापत्य कला के अनूठे नमूने के रूप में ये स्थान आज भी दर्शनीय हैं। बनैली राज का
विस्तार बिहार, झारखंड, बंगाल और उड़ीसा तक था और देश की सबसे बड़ी ज़मीन्दारी
रियासतों में, एक माना जाता था।
बनैली राज के मूल
संस्थापक दीवान देवानन्द का जन्म 1690 ई0 के आसपास हुआ था।
वे पहसरा के राजा रामचंद्र नारायण राय के दीवान थे। एक समर्थ और बुद्धिमान
राजपुरुष के रूप में उनकी पहचान थी। उनका प्रभाव-क्षेत्र इतना व्यापक था कि
पूर्णियाँँ का नवाब सैफ़ खाँ उन्हें मित्रवत आदर देता था। जिस प्रकार नवाब की
अनुमति से 1751 ई0 में, राजा रामचंद्र ने असजाह और तीराखारदह नामक दो सीमावर्ती
परगने उन्हें दिये थे और स्वयं नवाब ने उनके बेटे परमानंद चौधरीको हजारी मनसबदार
के खिलअत से नवाज़ा था, उससे नवाब के दरबार में दीवान देवानन्द के प्रभाव का स्पष्ट
पता चलता है। ज़ाहिर है कि देवानन्द सरीखे राजपुरुष की मंत्रणा से ही सैफ़ खाँ ने
मोरंग के राजा से उपरोक्त भूमि अपहृत की थी। फ्रांसिस बुकानन ‘ए रिपोर्ट आॅन द
डिस्ट्रिक्ट आॅफ पूर्णियाँँ’ के 498 पृष्ठ पर लिखते हैं “Tirakharda is a fine estate in the divisions of
Matiyari and Arariya. This also was taken from Morang, and given to the Rajas
of Puraniya, but Ramchandra, the last Raja except one, gave this and Asja as
already mentioned to his Dewan Devananda.”
इतना ही नहीं, सैफ़ खान ने सरकार
मुंगेर के कुछ हिस्सों को भी जबरन पूर्णियाँँ में मिला लिया था और उस क्षेत्र के शासक,
तिरहुत के राजा
राघव सिंह पर अत्यन्त कुपित था। उस समय लाचार होकर राघव सिंह को दीवान देवानन्द की
मदद लेनी पड़ी थी। दीवान साहब ने सैफ़ खाँ से राघव के पक्ष में पैरवी की जिसके
फलस्वरूप कुछ अंषों को छोड़ कर धर्मपुर परगना उन्हें लौटा दिया गया। फ्रांसिस
बुकानन 508 पृष्ठ पर लिखते हैं - “It is alleged that Raghav Singha had incurred
the heavy displeasure of the Nawab, whose wrath was averted by the intercession
of Ramchandra of Puraniya, or rather of his agent Devananda, who had great
influence with the Muhammedan Noble”
इस प्रकार धर्मपुर
और सीमावर्ती तीराखारदह इत्यादि इलाकों के जुड़ जाने से पूर्णियाँँ का क्षेत्रफल बढ़कर लगभग 5000 वर्गमील हो गया।
इन सभी अभियानों में देवानन्द ने सकिªय भाग लिया था।
तिरहुत के राजा
माधव सिंह को बाल्यावस्था में दीवान देवानंद चौधरीने पनाह दी थी और माधव, चैदह वर्ष तक
उन्हीं के संरक्षण में पले बढ़े थे। बनैली से ही ले जाकर 1775 ई0 में उन्हें
तिरहुत की राजगद्दी पर बिठाया गया था।
1750 ई0 के आसपास,
पूर्णियाँॅं के
असजाह परगने के अमौर गाँव में इस राजवंश की पहली ड्योढ़ी बनी जिसे अमौरगढ़ के नाम से
जाना जाता था। हजारी परमानंद चौधरीने अमौरगढ़ में कई वर्षो तक राज्य किया। ‘ए रिपोर्ट आॅन द
डिस्ट्रिक्ट आॅफ पूर्णियाँँ’ के 492 पृष्ठ पर फ्रांसिस बुकानन लिखते हैं 'Asja (Assownja, Gladwin) is a fine
estate containing about 128,000bighas, of which perhaps 24,000 have been
alienated free of rent, and of the remainder between 63 and 64 thousand may be
occupied. It is scattered through the divisions of Dangrkhora, Dulalgunj,
Nehnager, Haveli and Arariya. In the year 1158 A.D. 1751) this was alienated by
Chandra Narayan, the father of the last puraniya Raja, to Devananda, a Mithila Brahman, who at the same time procured
another estate called Tirakharda, which will afterwards be mentioned.'
असजाह और तीराखारदह, दोनों ही उत्तरी
सीमा के निकट अवस्थित होने के कारण अशांत और असुरक्षित थे। अतः उन इलाकों में अमन
और सुलभ राजस्व प्राप्ति के लिये सैनिक-सहायता की आवश्यकता पड़ती थी। देवानन्द और
उनके पुत्र परमानन्द ने बड़ी कुशलता से उक्त परगनों में अमन और शान्ति स्थापित की।
अमौरगढ़, वक्र नामक एक पहाड़ी नदी के किनारे बसा था जो अमौर को, एक ओर नेपाल और
दूसरी ओर सुदूर कलकत्ते से जोड़ती थी। नदी के मुहाने पर पत्थरों से निर्मित सीढ़ीयाँ
थीं जिनसे होकर नगर में प्रवेश किया जा सकता था। प्रवेशद्वार से राजमहल तक चौड़ी सड़कें
थीं और ड्योढ़ी के इर्द गिर्द कई तालाब खुनवाये गये थे। हवेली के भीतर ही भीतर एक
ऐसी ज़मींदोज़ सुरंग बनायी गयी थी जो महल के अंदरुनी हिस्सांे को एक ऐसे तालाब से
जोड़ती थी जो स्त्रियों के, नहाने के काम आती थी और गढ़ी के बाहर स्थित थी। कई तहखाने भी
थे। गढ़ी के बाहर देविघरा नामक एक पूजा-स्थल में मृण्मयी दुर्गा की वार्षिक पूजा की
जाती थी। माना जाता है कि इस प्रांत में सर्वप्रथम यहीँ पर मिट्टी की मूर्ति बना
कर देवी की पूजा आरंभ की गई। इतना ही नहीं, मुसलमानों के लिए
पीरबाबा के मज़ार की देखरेख भी की जाती थी। उक्त देविघरा और पीरबाबा का मज़ार आज भी
विद्यमान है। स्थानीय व्यवस्था द्वारा इनका जीर्णोद्धार किया गया है और अमौर पुलिस
थाना ही इसका प्रबंध करती है।
देवानन्द, परमानन्द, राजा दुलार एवं
बाबू हरिलाल से संरक्षण पाकर शीघ्र ही अमौर, एक समृद्ध व्यवसायिक
केन्द्र और बाज़ार के रूप में विकसित हुआ और समीपस्थ बालूगंज, दुलालगंज और
कुट्टीगोला में अच्छे बाज़ार पनप आये। अमौर में निर्मित छूरी चम्मच और अन्य प्रकार
के बर्तनों की मांग सुदूर बाज़ारों मंे थी और इन बर्तनों पर की गई बीदरी शैली की नक्काशी
दूर दूर तक मशहूर थी।
बाद में अमौरगढ़ के
साथ असजाह का इलाका परमानंद के भतीजे हरिलाल के हिस्से में पड़ा। दुर्भाग्यवश
हरिलाल के पोते तीर्थानंद ने सारी संपदा गॅंवा दी और निःसंतान चल बसे। अमौरगढ़
खंडहरों मंे तबदील हो गया। जहाँ कभी अमौरगढ़ का राजमहल हुआ करता था उस स्थान पर आज
एक रेफ़रल अस्पताल विद्यमान है लेकिन स्थानीय जनता के लिये वह क्षेत्र आज भी राजगढ़
के नाम से जाना जाता है।
हजारी परमानंद चौधरीके
पुत्र, राजा बहादुर दुलार {दुलाल} सिंह चौधरी के समय में बनैली घराने का अधिक उत्कर्ष हुआ।
दुलार सिंह ({1750-1821ई0} ने कम उम्र में ही आम जन जीवन से संपर्क स्थापित किया,
और एक प्रभावशाली
व्यक्तित्व के स्वामी बने। वे पूर्णियाँॅं और दिनाजपुर के कानूनगो के पद पर
नियुक्त किये गये। 1775 ई0 के आसपास तीराखारदह अपने हिस्से में लेने के बाद दुलार
सिंह चौधरी ने हवेली पूर्णियाँ स्थित बनैली नामक पैतृक स्थान में अपना मुख्यालय
बनाया। फ्रांसिस बुकानन लिखते हैं “Tirakharda is a fine estate in the divisions of Matiyari and
Arariya. This also was taken from Morang, and given to the Rajas of Puraniya,
but Ramchandra, the last Raja except one, gave this and Asja as already
mentioned to his Dewan Devananda. This man left Asja to one son, Manikchandra,
and gave Tirakharda to Puramananda, another son, who has left it to Dular
Singha, a person whom I have had frequent occasion to mention as proprietor of a
portion of Kotwali, of Mahinagar Sujanagar in Serkar Jennutabad, Akburabad in
Serkar Urambar, and of Sujanagar, of Dehatta, and of Shahpur in Serkar Tajpur,
all of which I believe he has purchased; as he has also done a part of Dhapar
which will be afterwards mentioned. He also has lands in Tirahut, Bhagalpur and
Dinajpur, and is a very thriving man.” “I have entered into this detail to
explain the proper management of an estate, in which the only defect is the
perpetuity of the leases.” “Being very active and intelligent, he has also had
sense to perceive that his real interest is inseparably connected with fair
dealing and kindness to his tenants.”
राजधानी के रुप में बनैली का चयन हर
प्रकार से उपयुक्त था। बनैली सौरा नदी के किनारे बसा था। इस नदी के द्वारा बनैली
को न केवल एक नैसर्गिक किलाबंदी प्राप्त थी बल्कि, एक तरफ नेपाल और
दूसरी तरफ काढ़ागोला के निकट गंगा से जोड़ती हुई नदी मार्ग भी सुलभ थी। नगर से सटे पश्चिम
में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा निर्मित 10 नंबर पल्टनियाँ सड़क, नेपाल तक जाती थी।
सड़क और नदी मार्ग से जुड़े होने के साथ-साथ दुलार सिंह का संरक्षण पाकर बनैली एक
महत्वपूर्ण व्यापार केन्द्र में परिणत हो गया। थोड़े समय में ही दुलार अत्यधिक
धनाढ्य और शक्तिशाली हो गये और उन्हें एक स्थानीय राजा के रूप में मान्यता प्राप्त
हुई। संयोगवश उन्होंने अंग्रेज गवर्नर जनरल लाॅर्ड हेस्ंिटग्स, से दोस्ती भी कर
ली। गवर्नर जनरल इनके बढ़ते हुए प्रभाव से परिचित था और उसे दुलार सिंह के रूप में
एक महत्त्वपूर्ण राजनैतिक साथी प्राप्त हुआ। 1814 ई0 में जब नेपाल और
ब्रिटिश भारत के बीच युद्ध छिड़ा तब दुलार सिंह ने अंग्रेजों की बड़ी मदद की। कहा जाता
है कि उन्होंने ब्रिटिश सेना के लिए एक लाख मन रसद की आपूर्ति की और इस क्रम में
उनके 17 हाथी मारे गये। जब युद्ध विराम हुआ और सुगौली की संधि की गयी तब ब्रिटिश
सरकार ने उन्हें 1816 ई0 में राजा बहादुर के खिलअत से नवाज़ा। राजा बहादुर दुलार
सिंह के इस्टेट का सामूहिक रूप से ‘बनैली राज’ नामकरण किया गया।
1793 ई0 में स्थायी
बंदोबस्त के अंतर्गत पूर्णियाँॅं का सबसे छोटा परगना ({तीराखारदह}
ही दुलार सिंह के
नाम पर बंदोबस्त हुआ था। परन्तु जब 1821 ई0 में उनकी मृत्यु
हुई, तब वे पूर्णियाँॅं और भागलपुर के सबसे बड़े ज़मींदार थे। वे अपने पीछे एक
इस्टेेेट छोड़ गये जिसकी वार्षिक आमदनी 7 लाख के आसपास थी।
राजधानी बनैली को
सुनियोजित सड़कों और छोटे बड़े पोखरों से सजाया गया था और राजा दुलार की शक्ति और
सामथ्र्य के अनुरूप ड्योढ़ी महल आदि बनाए गए थे। फ्रांसिस बुकानन लिखते हैं “Dular Choudhary, an active landlord
has a house becoming his station, in the division of Haveli Puraniya.”
राजा ने एक दुर्गास्थान बनवाया था जिसे
देवीघरा के नाम से जाना जाता है। इससे सटे पष्चिम में, एक भव्य मंदिर का
निर्माण किया गया था जिसमें सुदूर राजस्थान से मंगवा कर माँ काली की सुंदर प्रस्तर
मूर्ति की स्थापना तांत्रिक विधियों द्वारा की गयी थी। आज यह मंदिर न केवल बनैली
राजवंश के प्राचीनतम प्रतीक के रूप में विद्यमान है बल्कि जिले के सबसे पुराने
भवनों में से एक है। 2011 ई0 में स्थानीय लोगों ने मिलजुल कर इस मंदिर का जीर्णोद्धार
किया है और प्राचीन स्थापत्य कला के इस नमूने को नवजीवन दिया है।
1821 ई0 में दुलार सिंह
की मृत्यु के बाद राजा वेदानन्द सिंह ने राज्यारोहण किया। कुछ ही दिनों के बाद सौतेले छोटे भाई कुमार
रुद्रानंद सिंह से अनबन होने लगी और रुद्रानंद ने बटवारे का मामला दायर कर दिया।
बाद में दोनों भाइयो में संधि हुई और इस्टेट का दो बराबर भागों में विभाजन हो गया।
वेदानंद के हिस्से का नाम ‘बनैली राज’ बरकरार रहा। रुद्रानंद अपने पैतृक स्थान पर बने रहे और
वेदानंद ने बनैली की उत्तरी सीमा के निकट अपने लिये एक भव्य ड्योढ़ी का निर्माण
किया।
वेदानंद सिंह की गढ़ी के पश्चिमी तरफ में
पथरघट्टा पोखर नाम से मशहूर एक तालाब यूं तो राजमहल की स्त्रियों के लिये खुनवाया
गया था परंतु इसका वास्तविक उपयोग था राजकीय गुप्त खजाने के रूप में। धन से भरे हुये लोहे के संदूकों को
जंज़ीरों से बांध कर जल के भीतर सुरक्षित रखा जाता था। समूचा तालाब पत्थर के चैकोर
टुकड़ों से पाटा हुआ था। पूर्वी और पष्चिमी तटों पर नक्काषीदार पत्थरों का घाट बना
था और तालाब के मध्य में एक नक्काशीदार पत्थर का स्तंभ {जाठ} लगा था। तालाब के
किनारे रानियों के लिये वस्त्र-परिवर्तन कक्ष था और यह तालाब चारों ओर से ऊॅंची
दीवारों से घिरा था। बस एक भूमिगत रास्ता इस तालाब को महल के रनिवास से जोड़ती थी।
यह स्थान आज भग्नावस्था में हो कर भी दर्शनीय है।
1840 और 1842 ई0 में राजा वेदानंद सिंह ने राजा रहमत अली खाँ के खड़गपुर
इस्टेट के लगभग सभी महालात खरीद लिये। इस प्रकार उन्होंने अपने पैतृक इस्टेट का कई
गुणा विस्तार किया। वेदानंद को आर्युवेद का बड़ा शौक था और उन्होंने बनैली में,
‘वैद्यकीय बाड़ी’
नामक, जड़ी-बूटियों का एक
उद्यान लगवाया था। आयुर्वेद पर उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी थी ‘वेदानंद विनोद’।
वर्तमान पूर्णियाँ के प्रति राजा
वेदानन्द सिंह का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। 1831 ई में, जब सरकारी
कार्यालय, समाहरणालय, न्यायालय आदि भवनों के लिए उपयुक्त ज़मीन की तलाश षुरु हुई
तब वेदानन्द ने मात्र 491 रुपये के दर से वार्षिक राजस्व लेकर कुल 1203 एकड़ ज़मीन सरकार
को दी। इसी के फलस्वरूप पूर्णियाँ सिटी से अलग एक नया पूर्णियाँ शहर बसाया जा सका।
राजा वेदानंद सिंह के एकमात्र पुत्र राजा
लीलानन्द सिंह का जन्म 1816 ई0 में हुआ था। उनका राज्याभिषेक 8/12/1851 को हुआ। उन्होंने
अपने वंश की गरिमा को अक्षुण्ण रखा और अपनी दानवीरता के लिए इस प्रकार मशहूर हुये
कि लोगों ने उन्हें ‘कलिकर्ण’ की उपाधि से विभूषित किया था। आज भी उनकी दानशीलता के
किस्से सुनने को मिलते हैं।
1855 ई0 के आसपास,
बनैली बारबार बाढ़
और महामारी के चपेट में आने लगा और राजधानी को हटा कर दूसरी जगह ले जाना अत्यावश्यक
हो गया। अतः इन्होंने ने बनैली का परित्याग किया और ड्योढ़ी रामनगर में नई राजधानी
बनाई । बाद में एकबार फिर लीलानन्द ने राजधानी बदली। रामनगर अपने ज्येष्ठ पुत्र
कुँवर पद्मानन्द के जिम्मे छोड़कर चंपानगर नामक नई राजधानी का नींव रखा। यह घटना 1868-69 ई0 के आसपास की है।
राजा लीलानन्द के दरबार में
बुद्धिजीवियों का जमघट लगा रहता था और विभिन्न धार्मिक और दार्शनिक विषयों पर शास्त्रार्थ
का आयोजन किया जाता था। ऐसा ही एक यादगार अवसर उल्लेखनीय है जब आर्य समाज के
संस्थापक, मूर्तिपूजन विरोधी स्वामी दयानन्द
सरस्वती, चम्पानगर पधारे और धर्मधुरीण महामहोपाध्याय कृष्ण सिंह ठाकुर द्वारा शास्त्रार्थ में पराजित हुये। लीलानन्द
मूर्तिपूजन के समर्थक थे और धर्मधुरीण ने इसी मत के पक्ष में शास्त्रार्थ किया था।
राजा लीलानंद सिंह
की मृत्यु के कुछ वर्ष बाद उनकी अंतिम पत्नी रानी सीतावती देवी ने 1888 ई0 में अपने नाबालिग
बेटों की तरफ से पद्मानंद सिंह के विरुद्ध बॅंटवारे का मामला दायर किया। पद्मानंद
ने रानी सीतावती देवी को इस्टेट में हिस्सा देने से साफ इन्कार कर दिया था परंतु
बाद में अपनी पत्नी पद्मावती के दबाव मे आकर संधि के लिये राजी हो गये। कुँवर
कलानंद और कुँवर कीर्त्यानंद को राज बनैली
में 9 आना का हिस्सा मिला और पद्मानंद 7 आना लेकर अलग हो गये।
राजा पद्मानंद
सिंह पिता की भांति दानशील तो थे ही, भगवान शिव के अनन्य भक्त भी थे। देवघर के
बैधनाथ मंदिर के सिंह-द्वार का निर्माण राजा पद्मानंद सिंह ने करवाया था। 1902 ई0 में पाँच बीघा
ज़मीन और प्रचुर धन देकर उन्होंने पूर्णियाँँ में ‘विक्टोरिया
मेमोरियल टाउन हाॅल’ का निर्माण भी करवाया।
उनके बड़े बेटे कुँवर चंद्रानंद सिंह
मानसिक रुप से अविकसित थे और यही कारण था कि एक योग्य वारिस के अभाव में पद्मानंद
भौतिक मूल्यों के प्रति अति असावधान हो गये और अत्यधिक खर्च
करते हुए गले तक
कर्ज में धॅंस गये।
1908 ई0 में कुमार
चंद्रानंद की मृत्यु के बाद उनकी विधवा रानी चंद्रावती देवी, 7 आना इस्टेट की
मालकिन बनी। बाद में चंद्रावती ने 3 आना हिस्सा, अपने दायाद कीर्त्यानंद , रमानंद, और कृष्णानंद के
हाथों बेचकर अपने ससुर द्वारा लिये गये कर्जो की चुकती की। चंद्रावती की मृत्यु के
बाद उनके 4 आना इस्टेट में से डेढ़ आना राजा कीर्त्यानंद को, और ढाई आना, उनकी ननद
राजकुमारी मोती दाइजी के बेटों को मिला। राजा पद्मानंद सिंह के दूसरे पुत्र,
कुमार सूर्यानंद
सिंह बड़े होनहार और ओजस्वी थे। परन्तु दुर्भाग्यवश वे किशोरावस्था में ही चल बसे।
राजकुमारी मोती के वंशज बनैली राज की ‘रामनगर शाखा’ के रूप में जाने
गये।
राजा पद्मानंद की
पत्नी रानी पद्मावती देवी द्वारा 1912 ई0 में, और उनकी पुत्रवधू
रानी चंद्रावती देवी द्वारा 1924 ई0 में बनारस में
तारा मंदिर ट्रस्ट, और श्यामा मंदिर ट्रस्ट की स्थापना की गई। श्यामा मंदिर
ट्रस्ट के अंतर्गत 1927 ई0 में ‘आदर्श रानी चंद्रावती श्यामा महाविद्यालय’ खोला गया जिसे आज
भी बनारस के संस्कृत शिक्षा संस्थानों में अग्रणी माना जाता है।
राजा लीलानंद सिंह
के दूसरे पुत्र, राजा कलानंद सिंह बहादुर का जन्म 1880 ई0 में हुआ। 1-1-1910 को ब्रिटिश सरकार
द्वारा उन्हें राजा की उपाधि मिली। राजा लीलानंद सिंह के तीसरे पुत्र, राजा बहादुर कीर्त्यानंद
सिंह का जन्म 23-9-1883 को हुआ और ब्रिटिश
सरकार ने इन्हें 1914 में ‘राजा’ और पुनः1919 में ‘राजा बहादुर’ की पदवी से सम्मानित किया। कलानंद और कीर्त्यानंद
में बड़ी मैत्री थी। रानी पद्मावती देवी की
मदद से इन दोनों ने पद्मानंद के हिस्से के
7 आने को ठीका प्रबंध पर ले लिया और यह व्यवस्था 1936ई0 तक चलती रही। 24/8/1919 तक दोनों भाई
साथ-साथ ड्योढ़ी बनैली चंपानगर में रहे और यही एक तरह से राज बनैली का स्वर्णिम काल
भी हुआ।
कलानंद और कीर्त्यानंद ने शिक्षा के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण योगदान
देकर इतिहास के पन्नों पर पूर्णियाँ का नाम सदैव के लिये अंकित कर दिया। उन्हों ने
1903 ई0 में चम्पानगर में एक एम0 ई0 स्कूल खुलवाया जो निजी व्यवस्था द्वारा संचालित जिला का
पहला विद्यालय था।
1909 ई0 में भागलपुर के तेज
नारायण जूबली काॅलेज की बिगड़ती हुई हालत देखकर कलानंद सिंह और कीर्त्यानंद सिंह ने लाखों रुपये देकर उसे नया जीवन दिया। टी0एन0जे0 काॅलेज बाद में
तेज नारायण बनैली काॅलेज के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके अलावा दोनों भाइयों ने कई
और अनुदान देकर पूर्णियाँ का नाम रोैशन किया। उनमें प्रमुख थे--
ऽ पटना विश्वविद्यालय
में अर्थशास्त्र के रीडरशिप के लिए 25000/-
ऽ पटना मेडिकल
काॅलेज में 1 लाख और
ऽ बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय
में 1 लाख
कलानंद सिंह सदैव ऐसा महसूस करते थे कि उपरोक्त सभी
अनुदानों से सिर्फ कीर्त्यानंद ही यश के
भागी हुए। यह बात सच भी थी क्योंकि जनता से अधिक आदान-प्रदान बनाये रखने के कारण कीर्त्यानंद
सिंह काफी प्रसिद्ध थे। कलानन्द के बड़े
लड़के कुमार रमानंद सिंह ने अपने पिता पर दबाव डालकर उन्हें चाचा से अलग होने के
लिये मना लिया। दोनों भाई अलग हो गये। कलानंद ने 1920 ई0 में सर्रा नामक
गाँव में अपनी ड्योढ़ी बनायी और उसे ‘गढ़बनैली’ नाम दिया। कीर्त्यानंद
चंपानगर में बने रहे।
राजा बहादुर कीर्त्यानंद सिंह जमींदारों और राजाओं के बीच पहले ग्रेजुएट
थे। उन्होंने 1903 ई0 में इलाहाबाद महाविद्यालय से बी0ए0 पास किया था। वे
इतिहास के स्नातक तो थे ही, अंग्रेजी और हिन्दी के विद्वान भी थे। उन्होंने अपने शिकार
के अनुभवों पर आधारित दो पुस्तकें अंग्रेज़ी में लिखी थीं। पहला ‘पूर्णियाँॅं ए शिकारलैंड’
और दूसरा ‘शिकार इन हिल्स
एंड जंगल्स’।
आज पूरा विष्व वन्य प्राणियों की सुरक्षा
में भिड़ा है। कितनी ही प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर खड़ी हैं और ऐसे में
उनका संरक्षण अत्यावष्यक है। परंतु कीर्त्यानंद सिंह के ज़माने में परिस्थिति सर्वथा भिन्न थी।‘पूर्णियाँॅं ए
षिकारलैंड’ में वे लिखते हैं- “The country all around is calm, but is not, certainly, devoid of
population. A number of scattered thorps dot the plains here and there; but the
life of the inhabitants is at times one of danger and dread; for, which their
numberless cattle grazing freely in the jungles, attract the cattle lifter from
his grassy ambush, the people themselves have at times cleverly to deceive the
vigilance of the dangerous man-eater. The welfare of these poor agriculturists
and cow herds who are our tenants made me take to the rifle and generated in me
and all about me a passion for jungle sport which is the subject of this book.”
कीर्त्यानंद
होमियोपैथिक चिकित्सा के भी अच्छे जानकार
थे और उन्होंने इस विषय पर ‘होमियोपैथिक प्रेक्टिस’ नामक किताब लिखी
थी।
कीर्त्यानंद सिंह ने काफी कम उम्र में ही राजनैतिक जीवन में
प्रवेश कर लिया था। ‘माॅरले मिन्टो रिफाॅर्म्स’ के अंतर्गत वे
पुराने बंगाल के विधान परिषद के माननीय सदस्य थे। बिहार और उड़ीसा प्रांत के गठन
होने पर वे पुनः विधान परिषद में भागलपुर के जमींदारों के प्रतिनिधि सदस्य के
रूप में चुने गये। 1909 ई0 में वे भागलपुर
के बिहार औद्योगिक सम्मेलन के अध्यक्ष बनें। उन्होंने 1906 ई0 में प्रांत के
पहले अंग्रेजी दैनिक अखबार ‘द बिहारी’ को सुदृढ़ और
सुव्यवस्थित करने में बड़ी मदद की। यही ‘द बिहारी’ बाद में ‘सर्चलाइट’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
भागलपुर में आयोजित अखिल भारतीय हिन्दी
साहित्य सम्मेलन के स्वागत समिति के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने हिन्दी भाषा की
बड़ी सेवा की। बाद में मुजफ्फरपुर में आयोजित सत्र के भी वे अध्यक्ष रहे। कीर्त्यानंद
सिंह काफी लम्बे समय तक ‘बिहारोत्कल
संस्कृत समिति’ के अध्यक्ष रहे।
ब्रिटिश गवर्नमेंट
ने 22/6/1914 को उन्हें ‘राजा’ की उपाधि दी। इस अवसर पर दैनिक अखबार ”द एक्सप्रेस“
ने लिखा- “The title of Raja conferred on
Kumar Kirtyanand Sinha of Banaili, will undoubtedly be received with very great
satisfaction. Raja Kirtyanand Sinha has freely opened his purse for all good
works, calculated to promote the advancement of the province, and it is an
honour which he richly deserves.”
9/7/1917 को कीर्त्यानंद सिंह ‘चंपारण अग्रेरियन कमिटी’ में जमींदारों के
प्रतिनिधि चुने गये और उन्होंने जिस प्रकार जमींदार और रैयत के बीच सामंजस्य कायम
किया, वह न केवल गवर्नमेंट बल्कि महात्मा गांधी के द्वारा भी सराहा गया। बाद में,1919 ई0 में ‘राजाबहादुर’
की पदवी देकर
ब्रिटिश गवर्नमेंट ने फिर एक बार उनका सम्मान किया।
बैंक आॅफ बिहार के कार्यशील डायरेक्टर के
रूप में कीर्त्यानंद सिंह ने 1929 से लेकर 1937 ई0 तक प्रांत के
आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। बैंक आॅफ बिहार की स्थापना 1911 ई0 में हुई थी और
बाद में स्टेट बैंक आॅफ इंडिया में इसका विलय हो गया।
राजा कीर्त्यानंद सिंह ने 1917-18 ई0 में कलकत्ता
महाविद्यालय के कुलपति सर आषुतोष मुखर्जी को 7500/- देकर मैथिली को एक
प्रादेशिक भाषा की मान्यता दिलवायी और उसकी पढ़ाई आरंभ करवायी।
बंगाल के सीतारामपुर में उन्होंने ‘कीर्त्यानंद आयरन एंड स्टील वक्र्स’ खोलकर औद्योगीकरण
की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास किया था। इस कंपनी ने 1921-22 ई0 में उत्पादन
कार्य आरंभ किया और गुणवत्ता में यह टाटा कंपनी और बंगाल आयरन कंपनी के समकक्ष
माना गया। दुर्भाग्यवश ‘कीर्त्यानंद आयरन
एंड स्टील वक्र्स’ कामयाब नहीं रह सका।
1933 ई0 में ‘हाउस्टन माउण्ट
एवरेस्ट एक्सपेडिशन’ के अंतर्गत पूर्णियाँॅं में ही बेस कैंप बना कर एवरेस्ट की
चोटी के उपर से प्रथम उड़ान भरी गई। उल्लेखनीय है कि इस उड़ान-दल ने राजा कीर्त्यानंद
सिंह और दरभंगा के महाराजा के संरक्षण और
आतिथ्य में रह कर अपना कार्य पूरा किया था। पी0 एफ0 एम0 फेलोज़ लिखते हैं "The Raja of Banaili, a cheery
personality, who had shot over hundred tigers, offered us his fleet of
motor-cars, remarking that, if possible, he would like to retain one or two of
his own. He had seventeen. He seemed astonished, as if at an unusual display of
moderation, when only three cars and a lorry were required."
राजा कीर्त्यानंद सिंह ने 1928 ई0 में
पूर्णियाँॅं-सहरसा रेलवे लाइन पर भोकराहा के निकट निजी कोष से एक रेलवे स्टेशन
बनवाया जो आज कीर्त्यानंद नगर के नाम से जाना जाता है।
इतना ही नहीं,
उन्हों ने 1935 ई0 में पूर्णियाँॅं
जिला स्कूल का नया भवन बनवाने के लिए 17.5 एकड़ ज़मीन और प्रचुर धन देकर महत्वपूर्ण
सहयोग दिया। 22-6-1935 को ‘द स्टेट्समैन’ ने लिखा- “The Rajah Bahadur of Banaili has presented 17½
acres of land at Purnea for the purpose of building the new Purnea Zila School
to replace the old school ruined by the Bihar Earthquake”
बाद में वे उच्च और अनियमित रक्तचाप से अस्वस्थ रहने लगे। 1936 ई0 में वे बीमार पड़े
और उनकी हालत बिगड़ती चली गयी। अंतिम समय में उन्हें एक विषेश रेलगाड़ी से बनारस ले
जाया गया जहाँ पहुँचतें ही 18/1/19380 को काषी स्टेशन पर उनकी मृत्यु हो गयी।
कुमार रमानन्द सिंह({1900-1940} ने गढ़बनैली में एक
इंगलिश मीडिएम हाइ स्कूल की स्थापना की और उसका नाम अपने पिता की स्मृति में ‘कलानन्द उच्च
विद्यालय’ रखा। पूर्णियाँॅं बालिका उच्च विद्यालय को उन्होंने तीन बीघा ज़मीन और प्रचुर
धन देकर जिले में स्त्री शिक्षा के प्रति अपना कर्तव्य निभाया। इतना ही नहीं,गढ़बनैली में अपना
निजी अतिथि भवन में देकर उसमें ‘रमानन्द मघ्य विद्यालय’ खुलवाया। जलालाबाद
{मुंगेर} का ‘रमानन्द हाई स्कूल’ भी उन्हीं की देन है। पूर्णियाँॅं में
चिकित्सीय सुविधा में विकास लाने की दिशा में कुमार रमानन्द सिंह द्वारा की गई
सेवा को बिसराया नहीं जा सकता। एक लाख रुपयों का दान देकर अस्पताल परिसर में
उन्होंने एक भवन बनवाया जिसे ‘रमानन्द ब्लाॅक’ नाम दिया गया। अस्पताल के विकास के लिए
भी उन्होंने आर्थिक सहायता की। इतना ही नही, अपनी माता की
स्मृति में उन्होंने गढ़बनैली में ‘कलावती दातव्य औधालय’की स्थापना की।
कुमार रमानन्द
सिंह के छोटे भाई कुमार कृष्णानंद सिंह बड़े सुदर्शन व्यक्तित्व के मालिक थे और
प्रजाजनों के बीच उनका बड़ा ही सम्मान था। बाद में वे सुलतानगंज जा बसे।
गढ़बनैली के महल और उद्यान अपने सौन्दर्य, भव्यता और
स्थापत्य कला के लिए मशहूर थे। गढ़बनैली का ‘नबका पक्का’
नामक महल रमानंद
सिंह की कलात्मक रुचियों का प्रमाण है। 1936ई0 में इस महल का
निर्माण शुरु हुआ परंतु उनकी असामयिक मृत्यु की वजह से आज भी अधूरा ही है। वेसे तो
समूचा गढ़बनैली ही एक सुंदर सुनियोजित नक्षे के अनुसार बना था पर सिंह दरवाजे के
सामने एक सौ बीघे में फैला हुआ उद्यान और उजले सीमेंट से बनाया गया नक्काषीदार
नाट्यशाला अपनी सुंदरता के लिये प्रख्यात था। कलाभवन नाम से प्रसिद्ध वहाँ के
राजप्रासाद को जिले का सर्वाधिक विशाल भवन होने का गौरव प्राप्त था परंतु
दुर्भाग्यवश रमानन्द के वंशज उसे संभाल न सके। फिर भी ड्योढ़ी के कुछ बचे हुए अंश
आज भी दर्शनीय हैं।
राजा कीर्त्यानंद सिंह के बड़े पुत्र कुमार श्यामानन्द सिंह के समय
में बनैली का नाम शास्त्रीय संगीत के संरक्षक और प्रचारक के रूप में उभरा और कई दशकों
तक {1938-1965} चम्पानगर ड्योढ़ी में भारतीय शास्त्रीय संगीत का भव्य आयोजन
होता रहा। इस कालखंड में भारत के लगभग सभी महान कलाकारों ने यहाँ अपनी प्रस्तुति
की। इन संगीत सम्मेलनों के फलस्वरूप ही पूर्णियाँॅं की जनता शास्त्रीय संगीत के
प्रति अधिक जागरुक होती गई और पूर्णियाँॅं की संस्कृति के साथ संगीत का नाम सदा के
लिए जुड़ गया। श्यामानन्द सिंह स्वयं भी एक उच्च कोटि के संगीतज्ञ थे और ख़याल और
बंदिश गाने में उन्हें महारत हासिल थी। कलकत्ता के पं0 भीष्मदेव चटर्जी,
आगरा के उस्ताद
बाचू खाँ, दिल्ली के उ0 मुज़फ्फ़र खाँ, और इलाहाबाद के पं0 भोलानाथ भट्ट
सरीखे संगीत के दिग्गजों से कुमार ने प्रशिक्षण लिया था।
श्यामानन्द सिंह एक उच्च कोटि के खिलाड़ी भी रहे। फुटबाॅल के
क्षेत्र में जिला स्तर पर और बिलियर्ड्स के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें
ख्याति प्राप्त थी। बनैली की चम्पानगर शाखा की तरफ से उन्होंने जिला-खेलकूद-संघ को
अपना निजी मैदान देकर पूर्णियाँॅं के खेलकूद जगत को एक अमूल्य उपहार दिया। अखिल
भारतीय संगीत नाटक अकादमी में उन्होंने बिहार का प्रतिनिधित्व किया और 1948 ई0 में प्रयाग संगीत
समिति द्वारा आयोजित अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में दीक्षांत भाषण प्रस्तुत किया
था। 1966 ई0 के बाद वे पूर्णियाँॅं और निकटवर्ती क्षेत्र में भक्ति संगीत के प्रचार
प्रसार के प्रति समर्पित रहे। 1994 ई0 में उनकी मृत्यु हुई।
बनैली चंपानगर की
ड्योढ़ी और महल आदि पुराने भवन, स्थापत्य कला की दृष्टि से दर्शनीय तो हैं ही, तत्कालीन
ज़मीन्दार-राजाओं के आवासीय संरचना के माॅडल के रूप में भी विद्यमान हंै। 1869-70 ई0 में, रानी चंडेश्वरी देवी
द्वारा स्थापित देवीघरा और 1897 ई0 में रानी सीतावती देवी द्वारा निर्मित सीतेश्वर महादेव और
राधा-कृष्ण के मंदिर यहाँ के मुख्य आकर्षण हैं।
श्रीनगर राज
राजा वेदानंद सिंह कुमार रुद्रानंद सिंह और राजा वेदानंद
सिंह के आपसी बंटवारे के बाद रुद्रानंद अपने पिता की बनैली-ड्योढ़ी में ही रहते
रहे। उनकी मृत्यु के कुछ दिनांे के बाद ही बनैली बाढ़-ग्रसित हुआ और उसके पश्चात् भयंकर
महामारी फैली जिसके फलस्वरूप रुद्रानंद के एकमात्र बेटे श्रीनंद सिंह को बनैली
छोड़कर एक नए स्थान पर जाना पड़ा जिसका नाम श्रीनगर रखा गया। बनैली घराने की यह शाखा
श्रीनगर राज कहलायी।
1880 ई0 में 34 वर्ष की अल्पायु
में ही श्रीनंद सिंह की मृत्यु हो गयी। जिस समय उनकी मृत्यु हुई, उनके इस्टेट की
वार्षिक आय 2 लाख 68 हजार थी। श्रीनंद सिंह के तीन पुत्र हुए, नित्यानंद कमलानंद
और कालिकानंद। आपसी अनबन के कारण कुमार नित्यानंद सिंह अपना हिस्सा लेकर दोनों
सौतेले भाइयों से अलग हो गये और बगल के गाॅंव तारानगर में उन्होंने अपनी ड्योढ़ी
बनायी। वे अत्यधिक खर्च करने लगे और गले तक कर्ज में डूब गये। अंत में उनका इस्टेट
निलामी के कगार पर पहुँच गया। शुरु में कुमार कमलानंद और कुमार कालिकानंद का
इस्टेट कोर्ट आॅफ वार्डस के अधीन था और दोनों कुमारों के बालिग होने पर जब इस्टेट,
कोर्ट से मुक्त
हुआ तब उसकी आर्थिक हालत काफी अच्छी थी। लेकिन कमलानंद बड़े खर्चीले स्वभाव के
निकले। अपने मैनेजर मिस्टर वेदराॅल के मना करने के बावजूद उन्होंने 1900-01 ई0 में दरभंगा राज्य
से 3.5 लाख का कर्ज लिया। इतना ही नहीं, यह जानते हुए कि कर्जे से लदा हुआ
नित्यानंद का इस्टेट निलामी के कगार पर खड़ा था, कुमार कमलानंद और
कालिकानंद ने कर्ज सहित वह इस्टेट खरीद लिया और उक्त इस्टेट खरीदने के लिए इनलोगों
ने राजबनैली से और कर्ज ले लिया। बाद में मुंगेर के राजा रघुनंदन प्रसाद सिंह से
भी एक बड़ी रकम कर्ज में ली गयी। इस प्रकार कर्जो का एक सिलसिला चला जो अंततः
श्रीनगर इस्टेट के लिए घातक सिद्ध हुआ।
राजा कमलानंद सिंह,({1875-1910} हिन्दी के
प्रख्यात लेखक और कवि थे। उनकी रचनाओं में प्रमुख हैः- व्यास शोक प्रकाश, दुष्यन्त के प्रति
शकुन्तला का प्रेमपत्र, आलोचक और आलोचना, महामहोपाध्याय कविवर विद्यापति ठाकुर,
वीरांगना काव्य,
वोट पचीसी,
एडवर्ड बतीसी और
हैजा स्तोत्र। ब्रिटिश साम्राज्य काल में उन्होंने एक जमींदार होने के बावजूद बंकिमचन्द्र
के क्रांतिकारी उपन्यास आनंद-मठ का हिंदी में अनुवाद किया था। कानपुर की रसिक कवि सभा ने इन्हें साहित्य-सरोज
की उपाधि दी थी। राजा कमलानंद सिंह और उनके अनुज कुंवर कलिकानंद सिंह के दरबार में
तात्कालीन युग के लगभग सभी कवियों और लेखकों को संरक्षण और अर्थाश्रय प्राप्त था ।
कुमार कालिकानंद सिंह ने, निलामी के कगार पर
खड़े अपने इस्टेट को अपने अथक प्रयास से अधिक से अधिक समय तक बचाकर रखने की कोशिश की।
1930 ई0 में कुमार कालिकानंद सिंह की मृत्यु हो गयी।
राजा कमलानन्द सिंह के बड़े पुत्र कुमार
गंगानंद सिंह का जन्म 24/9/1898 को हुआ। परिवार की बिगड़ती आर्थिक दशा देखकर कुमार साहब ने
दरभंगा के महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह के सचिव का पद ग्रहण करना स्वीकार किया।
1923 ई0 में गंगानंद ने
राजनैतिक क्षेत्र में प्रवेश किया। उस समय
वे भारतीय-व्यवस्था-सभा में पूर्णियाँॅं भागलपुर और संथाल परगना के प्रतिनिधि
सदस्य के रुप में चुने गये। 1928 ई0 में वे अखिल भारतीय कांग्रेस के मंत्री पद पर चुने गये। 1939 और 1941 ई0 के बीच हिन्दु
महासभा के अध्यक्ष के रुप में उन्होंने बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। बाद में, 1954 ई0 में वे बिहार
विद्यान परिषद के नामांकित सदस्य बने और 1960 ई0 में एम0 एल0 ए0 के रुप में
प्रतिष्ठित हुए। 1962 ई0 में वे बिहार के शिक्षा मंत्री बने।
अपने चाचा कुमार
कालिकानंद सिंह, राजा कीर्त्यानंद सिंह और मालद्वार के राजा टंकनाथ चौधरीके साथ
मिलकर उन्होंने जिस प्रकार कलकत्ता विश्वविद्यालय में मैथिली भाषा की पढ़ाई आरंभ
करवायी और उसका पोषण किया वह सदैव अविस्मरणीय रहेगा। श्रीनगर का बुनियादी विद्यालय जो बाद में उच्च
विद्यालय में परिणत हुआ, और संस्कृत विद्यालय कुमार गंगानंद सिंह की देन है।
गंगानंद विशेषकर
अपनी साहित्यिक प्रतिभा के लिये जाने जाते हैं। हिन्दी में उनके द्वारा लिखित-
युकिलिप्टस, द्वितीय भोज- साहित्य सरोज कवि कुलचंद्र श्रीनगर
राज्याधिपति राजा कमलानंद सिंह, भारतेन्दु स्मृति, महाराजाधिराज के साथ, बाल्मीकि का अपने
काव्य में आत्मप्रकाश और विद्यापति के काव्य का भक्तिपक्ष, नामक आलेख
प्रसिद्ध हुए। मैथिली में उनकी निम्नलिखित रचनायें हैंः- जीवन संघर्ष, आमक गाछी, पंच परमेष्वर,
पंडित पुत्र,
मनुष्यक मोल,
बिहाड़ि, विवाह, अगिलहि, आह्वान, निबन्धक प्रगति,
मैथिली साहित्यक
विकास, राष्ट्रीय एकताक महत्व और सतरहम ओ अठारहम शताब्दीक मैथिली नाटक।
1966 ई0 में वे दरभंगा के कामेश्वर सिंह संस्कृत विष्वविद्यालय के
कुलपति बने। 17/1/1970 को उनकी मृत्यु हो गयी।
राजा दुलार सिंह
की बेटियों में से राजकुमारी चंद्र-हासिनि
और चंद्र-खेलनि की स्मृति में श्रीनंद ने दो शिव मंदिर बनवाया गया था जो
श्रीनगर मंठ के नाम से मशहूर था। 1987 ई0 के भूकंप में
इनमें से एक धराशायी हो गया और दूसरा अभी भी जीर्णावस्था में मौजूद है। यह मंदिर
और 1934 ई0 के महाभूकंप में क्षतिग्रस्त ‘नवरतन’ नामक महल अपने अनूठे स्थापत्य-सौंदर्य के लिये आज भी दर्शनीय
है।
सुरजापुर- खगड़ा और किशनगंज के नवाब
सूर्यपुर उर्फ़ सुरजापुर परगने की ज़मीन्दारी सैयद खान
दस्तूर को मुगल बादशाह हुमायुँ से, षेरशाह के विरुद्ध मदद करने के पारितोषिक के रूप में मिली
थी। दस्तूर खान के बाद, उनके दामाद सैयद राय खान ने ज़मीन्दारी संभाली। दस्तूर के
नवासे सैयद मुहम्मद जलालुद्दीन खान ने पूर्णियाँ की उत्तरी सीमावर्ती इलाकों से
नेपाली भोटियों को मार भगाया और इस बहादुरी के एवज में कहलगाँव परगना के साथ नवाब
का खिलअत भी हासिल किया। बाद में उन्हीं के एक नौकर ने उनकी हत्या कर दी। एक मत के
अनुसार, जलालगढ़ का किला इसी जलालुद्दीन का बनवाया हुआ है। जलाल के बाद मोहिउद्दीन और
उनके बहिनोई नूर मुहम्मद, नवाब हुये। नूर मुहम्मद के मरने के बाद उनके बेटे सुल्तान,
रौशन, रशीद और मकसूद ने क्रमशः
गद्दी संभाली। मकसूद के बड़े बेटे जैनुद्दीन मुहम्मद के निसंतान मरने के बाद उनके
दोनों भाइयों में उत्तराधिकार को लेकर झगड़ा हुआ मगर निपटारा न हो सका। दोनों चल
बसे। अतःउनके दीवान मुहम्मद सैयद को, ज़मीन्दारी और कानूनगोई दोनों सौंप दी गई।
मुहम्मद सैयद के वारिस हुये सैयद मुहम्मद ज़लील। राजस्व चुकाने से इनकार करने की
वजह से पूर्णियाँ के फौजदार सौलत जंग ने चढ़ाई करके ज़लील को गिरफ्तार कर लिया और
उनकी ज़मीन्दारी भी छीन ली लेकिन गुलाम हुसैन की कोशिषों के फलस्वरूप ‘सौलत जंग’ के वारिस ‘शौकत जंग’ ने 1756 ई0 में ज़लील के बेटे,
सैयद फ़क्रुद्दीन
हुसैन को परगना लौटा दिया। सैयद फ़क्रुद्दीन हुसैन ने 1793 ई0 में लाॅर्ड
काॅर्नवालिस के स्थायी प्रबंध के अंतर्गत अपने इलाकों का ज़मीन्दारी बंदोबस्त
करवाया।
फ़क्रुद्दीन हुसैन
के दो बेटों में बड़े, दीदार हुसैन का वंश खगड़ा-नवाब घराने के नाम से मशहूर हुआ।
फ़क्रुद्दीन के छोटे बेटे अकबर हुसैन के निःसंतान होने की वजह से उनकी विधवा ने
अपने भाई को ही वारिस बनाया। इनके वंशज किशनगंज-नवाब घराने के नाम से जाने गये।
लेकिन किशनगंज वालों ने अपनी सारी संपदा गॅवा दी, जिसका मुख्य अंश
नज़रगंज के धर्मचंद लाल और उनके बेटे राजा पी0 सी0 लाल ने खरीदा।
बाद में खगड़ा के नवाबों से वैवाहिक संबंध स्थापित करने के फलस्वरूप किशनगंज वाले
एक बार फिर सुरजापुर परगने के हिस्सेदार बने।खगड़ा घराने में नवाब सैयद अता हुसैन,
और किशनगंज घराने
में नवाब सैयद दिलावर रज़ा प्रमुख हुये।
मालद्वार-रजौर { चौधरी-वंश}
महीपति झा नामक एक मैथिल पंडित के पुत्र रामलोचन, मालद्वार के चौधरी-वंश
के संस्थापक हुये। प्राचीन मालद्वार के अंतर्गत् पूर्वी दिनाजपुर का रजौर नामक एक
परगना, जो अब बांग्लादेश में है, रामलोचन चौधरीको मालद्वार के तत्कालीन शासक से प्राप्त हुआ
और उन्हों ने वहीं अपना मुख्यालय बनाया जो रामगंज के नाम से जाना जाता था। रामलोचन
ने राजसूचक चौधरीपद ग्रहण किया और एक
स्थानीय राजा के रूप में जाने गये। रजौर की गद्दी पर बैठने के साथ ही वे मालद्वार
के प्राचीन ‘श्याम राय’ के मंदिर के सेवायत-पद पर भी आसीन हुये। उनके पुत्र राजा
दुर्गाप्रसाद और पौत्र राजा बुद्धिनाथ चौधरीके समय में इस ज़मीन्दारी का काफी
विस्तार हुआ। सौरिया राज्य जिस समय पतनोन्मुख हुआ उस समय बुद्धिनाथ ने सूयास्त
कानून के माध्यम से उसके पूर्वी भाग का अधिकांश खरीद लिया जिसके फलस्वरूप
पूर्णियाँ जिले में मालद्वार इस्टेट की मिल्कियत बढ़ कर 23 वर्गमील हो गई।
इस भाग की देख-रेख के लिये कदवा के निकट एक कचहरी स्थापित की गई जिसका नाम
दुर्गागंज रखा गया। बुद्धिनाथ ने शालमारी के पास, गोरखपुर धाम का शिव
मंदिर और तेघरा में काली मंदिर की स्थापना की। बुद्धिनाथ चौधरीके दो पुत्र हुये,
छत्रनाथ और
टंकनाथ। टंकनाथ चौधरी रामगंज में रहे और छत्रनाथ ने दुर्गागंज में अपना मुख्यालय
बनाया। रामगंज में टंकनाथ ने एक इंगलिश हाइ स्कूल की स्थापना की जिसमें दो सौ
लड़कों के लिये एक छात्रावास का भी निर्माण किया गया। वे 1921 ई0 में विधान परिषद
में जमींदारों के प्रतिनिधि सदस्य के रूप में चुने गये। 18-11-1925 को सरकार ने
टंकनाथ चौधरीको ‘राजा’ की पदवी से सम्मानित किया। राजा टंकनाथ चौधरी लगातार सात
वषों तक दिनाजपुर नगरपालिका के कमिष्नर और लगातार पंद्रह वषों तक दिनाजपुर जिला
परिषद के चेयरमैन रहे। अपने मित्र, कुमार कालिकानंद सिंह और राजा कीर्त्यानंद सिंह के साथ मिलकर उन्होंने जिस प्रकार कलकत्ता विश्वविद्यालय
में मैथिली भाषा की पढ़ाई आरंभ करवायी और उसका पोषण करने की दिशा में रजौर चेयर की
स्थापना की वह सदैव प्रशंसनीय रहेगा।
आम जन-जीवन की उन्नति में हमेशा चौधरी-वंशका
योगदान रहा जिसके साक्ष्य के रूप में इनके द्वारा स्थापित, न केवल दुर्गागंज
का उच्च-विद्यालय बल्कि दुर्गागंज, सोनैली और चांदपुर के मघ्य- विद्यालय और सोनैली का गोशाला
विद्यमान है। इतना ही नहीं, दुर्गागंज और सोनैली के अस्पताल भी उन्हीं की देन है।
1947 ई0 के
हिन्दू-मुसलमान दंगों के समय रामगंज बुरी तरह प्रभावित हुआ और राजा टंकनाथ चौधरीके
वंशज, पुर्वी पाकिस्तान में अपनी ज़मीन्दारी, सारी धन संपदा और अपने वंश के अधिष्ठाता श्याम-राय
को वहीं छोड़कर, भारत में अपने कचहरी (सोनैली) में जा बसने पर बाध्य हुये।
नज़रगंज
पूर्णियाँ सिटी के नज़रगंज इस्टेट के मालिक मूलतः महाजन थे।
ये ‘कोठीवाले नकछेदलाल और महेशलाल’ के नाम से जाने जाते थे। 19वीं सदी के
उत्तरार्ध में बाबू नकछेदलाल ने असजाह और श्रीपुर के कुछ अंश खरीदे और उनके पुत्र
बाबू धर्मचंद लाल चौधरीने अपनी ज़मीन्दारी का नाम ‘नज़रगंज’ रखा। धर्मचंद लाल चौधरीने
बाबू प्रताप सिंह से हवेली परगना खरीद कर इस्टेट का विस्तार किया। बाद में
उन्होंने सुरजापुर एवं पोआखाली के कुछ अंश भी हासिल किये। पूर्णियाँ के कलक्टर के
सुझाव पर नकछेदलाल ने सौरा नदी पर एक पक्का पुल बनवाया जो पूर्णियाँ सिटी को नव
निर्मित पूर्णियाँ शहर से जोड़ती थी। 1899 ई0 में धर्मचंद लाल चौधरी
की मृत्यु के पश्चात् उनके एकमात्र पुत्र पृथ्वीचंद लाल चौधरी मालिक हुये। ब्रिटिश
सरकार द्वारा ‘राजा’ की पदवी से नवाज़े जाने के आद वे ‘राजा पी0 सी0 लाल चौधरी’
के नाम से
प्रसिद्ध हुये। वे पूर्णियाँ पोलो क्लब के अध्यक्ष थे। गुलाब-बाग का मेला उन्हीं
की देन है। आम जनता के मनोरंजनार्थ लगवाया गया यह मेला, लगभग सौ वषों तक
इस प्रान्त के सबसे आकर्षक मेले में से एक माना जाता था। राजा पी0 सी0 लाल चौधरी,
सी0बी0ई0 ने नज़रगंज में
अपने नाम पर एक हाइ-स्कूल खुलवाया और पूर्णियाँ रेलवे-स्टेशन के समीप, अपनी पहली पत्नी,
भागवती प्रसाद चौधराइन
की स्मृति में एक धर्मशाला भी बनवाया। इतना ही नहीं, पूर्णियाँ अस्पताल
के भवन निर्माण में उन्हों ने प्रचुर आर्थिक सहयोग दिया था। पृथ्वीचंद ने नज़रगंज
को कई सुंदर इमारतों और उद्यानों से सजाया था जिनके भग्नावषेष आज भी मौजूद हैं।
राजा की कुलदेवी, त्रिपुरसुंदरी का मंदिर आज भी विद्यमान है परंतु उसमें
स्थापित अष्टधातु की मूर्ति की, कुछ वर्ष पूर्व चोरी हो गई।
युरोपियन-ब्रिटिश ज़मीन्दार
पुणियाँ में ब्रिटिश शासन कायम होने के कुछ ही महीनों के
भीतर कई यूरोपियन यहाँ आकर रामबाग नामक मुहल्ले में बस गये। यहाँ पर एक चर्च और
पादरियों के रहने के लिये कुछ मकान बनाये गये थे जिनके अवषेष 1934 ई0 तक विद्यमान थे। 1831 ई0 में जब वे लोग
रामबाग से हट कर नए पुणियाँ शहर में अपने आवास कायम करने लगे तब रोमन कैथोलिक चर्च
भी पुराने स्थान से हटा कर नये शहर में बनाया गया। 1882 ई0 में दार्जिलिंग
के लाॅरेटो काॅनवेंन्ट की पादरिनों ने पुणियाँ में एक स्कूल और छात्रावास की शुरुआत
की थी लेकिन बाद में जेसुइट मिशन चर्च की स्थापना के फलस्वरूप वह बंद पड़ गया और
कापुचीन मिशन चर्च दार्जिलिंग लौट गया। प्रोटेेस्टेन्ट ईसाइयों द्वारा उन्नीसवीं
सदी में स्थापित एंग्लिकम चर्च आज भी पुणियाँ के दर्शनीय स्थानों में से एक है और
ब्रिटिश युग की याद दिलाता है। यह स्थान गिरजा-चौक के नाम से विख्यात है।
पुणियाँ के युरोपियन ज़मीन्दारों और वाशिंदों
में दो नाम प्रमुख हैं- एलेक्ज़ेन्डर जाॅन फोर्ब्स और पामर। रानी इन्द्रावती की
ज़मीन्दारी की पतनावस्था में, पामर ने श्रीपुर, कुमारीपुर, कटिहार और फ़तेहपुर
सिंघिया का लगभग 25 प्रतिशत अंश खरीदा था। पामर की एकमात्र बेटी, मिसेज डाउनिंग,
उसकी
उत्तराधिकारिणी हुई। मिसेज डाउनिंग के दो वारिस हुए - उसका बेटा सी0 वाइ0 डाउनिंग और बेटी
मिसेज़ हेज़। कटिहार के निकट ‘मनशाही कोठी’ में इनका मुख्यालय था। आज हेज़ साहब का
भव्य आवास, पुणियाँ काॅलेज के मुख्य भवन के रूप में पहचाना जाता है।
1859 ई0 में मुर्शिदाबाद
के महाजन बाबू प्रताप सिंह से सुल्तानपुर परगना खरीद कर एलेक्ज़ेन्डर जाॅन फोर्ब्स ज़मीन्दार बना और
उसी के नाम पर सुल्तानपुर परगने में फोर्ब्सगंज नामक शहर बसाया गया। एलेक्ज़ेन्डर
जाॅन फोर्ब्स के बाद उसका बेटा आर्थर फोर्ब्स सुल्तानपुर परगने का ज़मीन्दार हुआ
लेकिन कलकत्ते में अधिक रहने की वजह से वह अपनी ज़मीन्दारी के प्रति लापरवाह था।
उसके मैनेजरों के अत्याचार ने आम जनता में आर्थर की छवि खराब कर दी थी। 1938 ई में आर्थर फोर्ब्स
की मृत्यु हुई। आज फोर्ब्स साहब के आवासीय स्थान में पुणियाँ महिला काॅलेज का भवन
खड़ा है।
पुणियाँ में नील की खेती सबसे पहले जाॅन
केली ने शुरु की। बाद में कई यूरोपियनों ने यहाँ जोर शोर से नील की खेती की। इनमें
शिलिंगफ़ोर्ड-वंश सबसे अग्रणी था जिन्होंने नीलगंज, महेन्द्रपुर,
भवबाड़ा इत्यादि
छःस्थानों में नील की फ़ैक्ट्रियाँ {नीलहा कोठी} स्थापित की। ‘जो’ और ‘जाॅर्ज’ शिलिंगफ़ोर्ड
प्रख्यात शिकारी हुये। ‘जो’ शिलिंगफ़ोर्ड के हाथों मारा गया एक विशाल गेंडा कलकत्ते के
संग्रहालय में आज भी मौजूद है। पुणियाँ में इस परिवार का भव्य आवास ‘मरंगा हाउस’
के नाम से विख्यात
था। इस वंश के ए0 जे0 शिलिंगफ़ोर्ड के वारिस टेरी विलियम्स के आवास में वर्तमान
डाॅन बाॅस्को स्कूल प्रांगण है। इस के अलावा चाल्र्स शिलिंगफ़ोर्ड और अमेलिया
मारिया शिलिंगफ़ोर्ड का नाम प्रमुख रूप से जाना जाता है।
कुर्सेला इस्टेट
के नाम से विख्यात बाबू अयोध्या प्रसाद सिंह के परिवार के लोग बड़े ज़मीन्दार तो न
थे पर अगाध भू संपत्ति {लगभग 32000 एकड़} के मालिक होने के कारण, ज़मीन्दारी
इस्टेटों के समकक्ष समझे जाते थे। बाबू अयोध्या प्रसाद सिंह 1881 ई0 में पटना से आकर
कुरसेला में बसे। उनके पुत्र रघुवंश प्रसाद सिंह को ब्रिटिश सरकार ने राय बहादुर
की उपाधि देकर सम्मानित किया। इन्होंने कुरसेला में दो विद्यालय और एक अस्पताल
बनवाया। पुणियाँ का सुख्यात ‘कलाभवन’ नामक सांस्कृतिक संस्थान इन्हीं की देन है। इनके तीन पुत्र
हुये- अवधेश प्र0 सिंह, अखिलेश प्र0 सिंह और दिनेश प्र0 सिंह।
पुणियाँ में
बनमनखी के निकट विष्णुपुर के बाबू वीरनारायण चंद का घराना भी ज़मीन्दारी इस्टेटों
के समकक्ष माना जाता था।
मुगलकाल के पहले
से ही एक सीमावर्ती प्रान्त के रूप में
पुणियाँ का राजनैतिक और सामरिक महत्व बना रहा। उपरोक्त दोनों प्रकार की स्थिरता
कायम रखने के लिये यह आवश्यक था कि जिले के सभी इलाके ऐसे कुशल और समर्थ
ज़मीन्दारों के अधीन रहें जो अमन चैन स्थापित करने में सरकार की मदद कर सकें।
अतःब्रिटिश गुलामी के उन दो सौ वषों के अंतराल में उन ज़मीन्दार वंशों की भूमिका
अविस्मरणीय रहेगी जिन्होंने, न केवल इन सीमावर्ती प्रदेशों की सुरक्षा में सरकार का हाथ
बॅटाया बल्कि परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से राजनैतिक शैक्षणिक सामाजिक और सांस्कृतिक
विकास के प्रति महत्वपूर्ण योगदान देकर आम जनता को एक स्वतं्रत्र एवं समर्थ भारत
की ओर अग्रसर किया।।
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आलेख- गिरिजानन्द सिंह
नवरतन हाउस
नवरतन हाता
पूर्णियाँ
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The modern history of the Indian chiefs, Rajas and Zamindars part 2 By---Lokenath Ghose printed in 1881
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by professor Bhaktinath Singh Thakur in Kavi Shekhar Badrinath Jha-
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