Wednesday, November 1, 2023

"हमरा बिसरब जुनि" कथा संग्रहक पाँचम पुष्प

 *परंपरा*

‘ऐ राजरानी, मनोरमा कें पढ़ओनाइ आब हमरा बुतें पार नहि लागत। आइ दुपहरिया में फेर हमरा ठकि के पड़ा गेलीह। एक्के रत्ती तऽ आंखि लागल छल कि पढ़नाइ छोड़ि के इएह ले वएह ले --- पार! बदमासि केहेन जे पाँजेब फोलि के पलंग तर मे राखि देलनि, किएक तऽ हम जागि जइतहुं त पड़ा नहि सकितथि।’

              ननदि गोदावरीक मुँह सॅ पुतोहुक गुनगाथा सुनि के दुर्गेश्वरी माथ पकड़ि के बैसि गेलीह। मनोरमा सत्ते सभक नाक मे दम्म कऽ के राखि देने छलीह।

‘हम तऽ कहै छी जे एकटा मेम मास्टरनी राखि लियऽ नहि तऽ ई अहाँक मनोरमा पढ़तीह लिखतीह नहि। की कहू जे केहेन दुस्साहसी छथि -- सिलेट पर लिखलनि ए ‘ग’ ‘धा’

बालिका मनोरमाक शिकाइत करैत गोदावरी के हॅसी लागि गेलनि। आठ बरखक मनोरमाक चयन वएह केने छलीह अप्पन सोलह वर्षीय भातिज शिवनंदनक लेल।

      कतेको कथा आयेल छल। कालीगंज रेयासतक राजकुमार लेल कन्यागतक कोन कमी। सभ तरहें देखि परखि के तीन टा कन्याक नाम सूची मे सॅ छाँटि के रखने छलीह रानी दुर्गेश्वरी देवी। मुदा बेसी तारतम्य नहि भेलनि। एक्कहि नजरि मे विधवा भामाक बेटी ‘ललिता’ पसिन्न पड़ि गेलखिन। राजभगिनी गोदावरी निश्चय कऽ लेलनि। अइ सँ सुन्नरि कन्या आब कतऽ भेटितनि, तै पर उच्च श्रोत्रिय वंश आओर परिचित कुटुंब। ललिता पहिनहि तेहेन मोन मे रमलखिन जे विवाहक बाद नाम पड़लनि ‘मनोरमा’।

             मुदा वएह मनोरमा आइ सासुक मनश्चिंताक कारण बनि गेल छथि। विवाह सॅ पहिने केओ सोचनहुं नहि छल जे विधवा माइक एकमात्र संतान हेबाक कारणे मनोरमा ततेक आवेश-दुलार पओने छलीह जे पुतोहुक रूप मे हुनका अनुशासित केनाइ कठिन होएत।

दुर्गेश्वरी बजलीह

‘ई ठीके कहैत छथिन। ओहनो ई कतेक दिन धरि पढ़ा सकथिन। इएह अप्पन भाइ के कहि के एकटा मास्टरनी ठीक करवा लेथु। मनोरमा तऽ की पढ़तीह से नहि जानि मुदा बड़कि कनेआँ के अंगरेजी पढ़बाक सौख छनि से पूरा भऽ जेतनि।’

 बड़की कनेआँ ‘नित्यरमा’ एगारह बरखक छथि। एक तरहें वएह मनोरमाक संरक्षिका छथिन। मनोरमाक ‘बहिनदाइ’। सासुर मे जेठ बहिनक लाभ भेल छनि मनोरमा कें। दूनू बहिन-देयादिनी संगहि रहैत छथि।

 भाउजक विचारक अनुमोदन करैत गोदावरी कहलखिन ‘ठीक अछि, आइ साँझ मे जखनि भाइ साहेब अओताह तऽ हम कहबनि’

‘एकटा गप्प आओर, मास्टरनीक रहबाक लेल डेराक प्रबन्ध आओर दूनू कनेआँक लेल पढ़बाक कोठली, एकरो व्यवस्था हेबाक चाही’

भविष्यक आवश्यकता ध्यान मे राखि के दुर्गेश्वरी ननदि के कहलखिन।

‘कतेक कोठली त ओहिना खाली पड़ल अछि लाल हवेली मे, तही सभ सॅ काज चला लेब। अनेरे नव कोठली बनवाके की हेतैक ---- ओना अहाँ जे उचित बूझी ---- मुदा ई सभ अहाँ हमरा कियेक कहेत छी? अपनहि कहबनि। आकि रूसल छी आइ काल्हि हमर भाइ सॅ?

दुर्गेश्वरी किंचित लजाइत बिहुंसैत उत्तर देलखिन

‘आब हमर वएस अछि रूसै बौंसै के? नइ नइ, एम्हर किछु दिन सॅ अबैत अबैत बेस अबेर भऽ जाइन छनि। तै पर सॅ तेहन ह्रस्त भेल अबै छथिन जे ------- तैं हिनका कहैत छियनि।

 सभ दिन साँझ मे राजा यशनंदन अप्पन जेठि बहिन गोदावरी दाइ सॅ भेंट करबाक लेल हवेली मे अबैत छथि। ओहि काल मे दुनू भाइ बहिन मिल के हवेलीक छोट पैघ समस्या सॅ संबंधित निर्णय लैत छथि। दुर्गेश्वरी ओतऽ रहैत तऽ छथि मुदा जेठ ननदिक सोझाँ, स्वामी सॅ बजैत नहि छथि। तैं ओ गोदावरी सॅ कहलखिन अछि।

 ओइ दिन सँझुका बैसाड़ी मे किहु एम्हर ओम्हर के गप्पक पश्चात्, गोदावरी मनोरमाक प्रसंग फोललनि। एक आठ बरखक अबोधा, दूनू प्रौढ़ा के मोन दिक कऽ देने छनि, एहेन समस्या सुनि के राजा के बड़ कौतूहल भेलनि। पुतोहुक मुख देखबाक इच्छा प्रकट केलनि। दुनू कनेआँ हाजिर कयेल गेलीह। गोदावरी एक-एक कऽ के दुनूक मुँह पर सॅ घोघ हटा देलखिन। राजा सिनेह सॅ पुतोहुक मुँह देखलनि आओर दुनूक हाथ मे एक-एक टा अशरफी दऽ के आशिर्वाद देलखिन। बहिन सॅ कहलखिन

‘पुतोहु तऽ साक्षात् लक्ष्मी सन पौने छथि अहाँक भाउजि’

फेर मनोरमा कें इंगित कऽ के बहिन सॅ पुछलनि

‘हम काल्हि कलकत्ता जायेब, सोम धरि घुरब, छोटकी कनेआँ सॅ पुछियौन जे हुनका ले हम की सनेस अनियनि’

जावत गोदावरी किछु पुछितथि की बजितथि तावत मनोरमा तपाक सॅ बाजि उठलीह

‘जी, हमरा एकटा ताला चाही’

सभ के आश्चर्य भेलैक कनेआँक निर्भीकता पर। राजा फेर आवेश सॅ पुछलखिन। अइ बेर सोझँहि पुतोहु सॅ

‘कियेक ? ताला लऽ के की करब?’

दुर्गेश्वरी आँखिक इशारा सॅ मना करितथिन तइ सॅ पहिनहिं खूब ओरिया पोरिया के मनोरमा कहऽ लगलखिन

‘जी, हमर आलमारी मे ताला नइ छैक। गहना गुरिया सभ रहैत छैक से यदि केओ चोरा लेतैक तखन की हेतैक!’

यशनंदन कें हँसी लागि गेलनि। पुतोहुक प्रतिभा सॅ प्रभावित भेलाह। स्त्राी के सुनाके कहलखिन

‘विलक्षण बुद्धि छनि। एखनहि रनिवासक चाभी हिनका सोंपि के हमरा लोकनि निश्चिंत भऽ सकैत छी’

प्रसन्नचित्त, राजा सँझुका दरबार मे जेबाक लेल ठाढ़ भऽ गेलाह।

 मनोरमाक प्रतिभा सॅ दुर्गेश्वरी प्रसन्न अथवा परिचित नहि छथि से बात नहि। जही दिन कुमर शिवनंदनक आँगुर मे आँगुर लगौने, एहि महागृह मे प्रवेश केने छलीह मनोरमा, तही दिन सासु के प्रभावित कऽ देने छलीह।

 जखनि कुमर के ई समाचार भेटलनि जे हुनक विवाह हेवाक लेल छनि तऽ ओ राता-राती महल सॅ पड़ा गेलाह। मुदा पड़ा के जइतथि कतऽ। गर्मी छुट्टीक लाथें कतेक दिन धरि कलकत्ताक कोठी मे बैसल रहितथि। जेठ बहिनोउ आओर किहु मोसाहेब लोकनि बुझा समझा के लऽ अनलखिन। तैयो अपन विवाहक गप्प कुमर के जॅचैत नहि छलनि।

 जेठ भाइक विवाह दू वर्ष पूर्वहिं भऽ गेल छलनि। तरुण कालिकानंदन के अपन बालिका कनेआँ लग जाइ मे लाज होइन्ह। ऐहेन नहि छलैक जे मोन नहि होनि जाइक, खूब मोन होनि, मुदा छोट भाइ सभ मिल के ततेक कचकचबथिन जे लाजें कनियाँ लग नहि जाथि। आओर कचकचबै मे अगुआ रहथि इयेह शिवनंदन।

‘आब हमरो वएह दशा होयत, भाइ सभ कचकचा के नाक मे दम्म कऽ देताह, नइ नइ, हम किन्नहु विवाह नइ करब!’

 मुदा कतबो ‘नइ नइ’ केलनि, शिवनंदनक विवाह भइये गेलनि।

 दुर्गेश्वरी बड़ मनोरथ सॅ विवाहक आयोजन केने छलीह। भावी समधिनक आर्थिक विपन्नता दुआरे दुनू पक्षक भार अपना पर लऽ लेने छलीह। किला सॅ कोस भरिक दूरी पर जे कोठी छलनि ओकरे समधियारक रूप देल गेलैक आओर मास दिन पूर्वहिं भामा-दाइ सदलबल आबि गेल छलीह विवाहक ओरियाओन करबाक लेल।

 कुमर शिवनंदनक बरियाती जखन साजल गेलनि तऽ पूरा नगर, किलाक सिंह दरबज्जा पर उमड़ि आएल छल। तासाक तड़तड़ी आओर नगाड़ाक गड़गड़ी सॅ वातावरण गनगना उठल छल। आगाँ आगाँ कहार सभ एक गोट विशालकाय बाँसक डाला उठौने जाइत छल जेकरा बाँसेक खपचीक रंग बिरंग फूल ओ चिड़इ सभ सॅ सजाओल छलैक। ओहि डालाक मध्य मे पीसल मिश्री सॅ बनाओल एकटा पैघ सनक शिवलिंग राखल छलैक आओर चारू कात विभिन्न वस्तु, जेना सुपारी, मेवा मसाला, सौभाग्य सिंदूर, हवनादिक उपकरण आदि। डालाक पाछाँ सॅ बाजा वला सभ छल आओर तकर बाद पंडित पुरोहित लोकनि शांतिपाठ करैत चलैत छलाह। कतेको काँचक झाड़-फानूस, रंग बिरंगक इजोत सॅ झकझकाइत, बरियातक शोभा बढ़ा रहल छल आओर एहि झाड़-फानूसक वृत्ताकार समूहक बीचोबीच चानीक तामदान पर कुमर शिवनंदन वऽर बनल बैसल छलाह। आठ कहार मिलि के तामदान उठौने छल आओर दूटा खवास चामर डोलबैत छल।

 वऽरक परिधानक रंग पीयर छलनि। पीयर धोती तौनी आओर पीरे किमखापक कुर्ता। माथ पर रेशमी पाग, जेकर मध्य मे जड़ाबी कलगा। गऽर मे हीरामोतीक बहुमुल्य हार आओर यथास्थान सभ आभूषण, जेना कुंडल, चौकठा, माठा।

 वरक पाछाँ हाथीक जुलूस सजाओल छलैक आओर भाँट लोकनि विरुदावलि गबैत जाइत छलाह। अंत मे विलायती मोटरकार सभ मे राजा साहेब, तीनू कुमर आओर कुटुंबगण, फेर ब्राह्मण, खवास, नौकर-चाकर, कुल मिलाके एक सय एक्कैस व्यक्ति छलाह बरियात मे।

 ओहि राति, कुटुम्बिनी लोकनिक सत्कारादिक निर्देश दैत दैत बड़ अबेर भऽ गेल छलनि दुर्गेश्वरी के। श्रान्त भऽ के ओछाओन पर पड़ि गेल छलीह। मुदा सुति नहि सकलीह।

 समाचार आयेल जे विवाह संपन्न भऽ गेल। संगहि आनो तरहक रोचक समाचार नववधूक संबंध मे। पहिल तऽ ई जे कनेआँ जिद्द ठानि देलकै जे ‘हम बरियाती देखब’। अंततः खवासिनक कान्ह पर चढ़ि के अप्पन बरियाती देखलकैक। देखि के खूब थपड़ी पिटलकैक। - - - - दोसर ई जे पुतोहुक मुँह देखि के राजा कहलखिन ‘साक्षात जगदम्बा’। - - - - सभ सॅ महत्वपूर्ण ई, जे सोहागक बेर मे अपन आगू मे गहना गुरिया क स्तूपाकार ढेरि देखि के नव कनेआँ कनेक्को कौतूहल नहि देखऔलकैक। विधक बीचहिं मे ओंघाए लगलैक आओर विधकरीक कोर मे सुति रहलैक। रानी दुर्गेश्वरी के बड़ संतोष भेल छलनि सुनि के।

 ई बुझियो के, कि पिछुलका राति ओकर विवाह भऽ गेलैक आओर ओ नीक सॅ देखियो नहि पओलक, ललिता प्रसन्ने भेल। ‘चलू आखिर वियाह भेल तऽ! आब देखब हम राजाक घऽर, खूब मजा अओतैक’।

ललिता के ई बूझल भऽ गेल छलैक जे ओतऽ भाँति भाँतिक जानवर सभ पोसि के राखल छैक, हाथी, घोड़ा, हरीन, चिड़इ सभ। एतेक दिन सॅ जे राजा रानीक खिस्सा-पिहानी सुनने छलैक नानीक मुँहें, से आब साक्षाते देखतैक।

‘बेस, आब आओर देर नहि, जल्दीये देखब सभ किहु, खूब सुख करब!’

 मुदा अबोध ललिता के ई ज्ञान नहि छलैक जे राजाक घर जाइत जाइत सभ किहु बदलि जाइ वला छलैक। राजसुख तऽ भेटतैक ओतऽ मुदा माएक आँचरि नहि भेटतैक। ने भेटतैक सखी बहिनपाक झुंड। जे किहु आइ तक ओ देखैत आएल छल, किछु नहि भेटतैक। एतऽ धरि जे स्वयं ललितो नहि हेतैक ओतऽ, हेतीह ‘रानी मनोरमा देवी’।

 विदा हेबाक काल धरि ललिताक उमंग कम नहि भेल छलैक। माइ के कहलकै

‘तोहूँ चल ने माँ! पालकी मे ढेरी जगह छैक, तो ओम्हर बैस जो। हम तऽ खिड़की लग बैसब!’

ई कहि ओ भामाक आँचर पकड़ि के घिचॅलकैक। एतीकाल धरि भामा अपना कें जब्त रखने छलीह। एके बेर सभ नियंत्राण बेकार भऽ गेलनि। अचेत भऽ के खसि पड़लीह। दाँती लागि गेलनि। एम्हर कहार सभ पालकी उठा लेलकैक। आब अबोध ललिता माइ ले कानऽ लगलैक,

‘हमर माँ खसि पड़ल, की भेलै? माँ संग मे आयेल किएक नहि?’ मोन मे जेना डऽर पैसि गेलैक आओर ललिता जोर जोर सॅ माँ माँ कहैत हिचुंकि हिचुँकि के कानऽ लगलैक। घोघ उघरि गेलैक, सभटा सिंगार-पटार नोचा गेलैक मुदा ललिता के कोनो सुधि नहि रहलैक।

 वएह एक क्षण मे सभ परिवर्तित भऽ गेलैक। अप्पन कें अप्पन नहि कहि सकनाइ आओर अपरिचित-अनजान लोक सभ कें सर्वस्व स्वीकार केनाइ के अत्यंत कठिन कष्टगर स्थिति सॅ पार भऽ के ‘ललिता’ सॅ ‘रानी मनोरमा’ मे परिवर्तन भऽ गेल छलैक ओ आठ बरखक कन्या। आओर ओ बुझबो नहि केलकैक।

 पालकीक दोसर छोर मे बैसल शिवनंदन कें पहिने तऽ संकोच भेलनि मुदा जखनि कनै के स्वर बढ़िते गेलैक तखन ओ अपन संगिनी कें पहिल बेर संबोधित केलनि

‘कनैत कियेक छी? चुप भऽ जाउ ----- माँ के हम काल्हिये बजवा देब --- नइ कानी, देखू, हमर दिस ताकू तऽ -- चुप भऽ जाउ --- तमाशा देखब? थम्हू, हम अहाँ के खिरकी लग सॅ तमाशा देखबैत छी।’

शिवनंदन खिड़कीक ओट सॅ अपन नव विवाहिता के बाहरक दृश्य देखबऽ लगलाह। बाहर मे रानी मनोरमा देवीक वधुप्रवेशक चहल पहल छल। एक दिस कठपुतली सभक नाच भऽ रहल छल, दोसर दिस नाटक नौटंकीक हल्ला होइत छल। इजोतक चकमक्की सॅ मनोरमाक आँखि मे चकचौन्हि लागि गेलनि। ओ तन्मय भऽ के तमाशा देखऽ लगलीह। एम्हर शिवनंदन स्त्रीक सुश्रुषा मे लगलाह, बीयनि सॅ घाम सुखा देलखिन, सिंगार पटार सहेजि देलखिन। तमाशा देखै मे तेहेन ध्यान चलि गेल छलनि मनोरमाक जे किच्छु नहि बुझलखिन। माइयो के बिसरि गेलीह। ओंघाए लगलीह।

 सिंह दरबज्जा सॅ प्रवेश करितहिं रानी मनोरमा कें तोपक सलामी पड़लनि। तोपक गर्जना सॅ निन्न टूटि गेलनि आओर अकबका कॅ उठि बैसलीह। सवारी, हवेली लग आबि गेल छलैक से देखि शिवनंदन झट दऽ कनेआँक माथ पर घोघ तानि देलखिन।

 जरीक फूल वला, पीयर रंगक महीन रेशमी नुआ सॅ छनि के एक आभा सन पसरि गेलैक हवेली मे। पालकी स उतरितहिं मनोरमा सभक मोन मे पैसि गेल छलखिन। ‘साक्षात जगदम्बा’ ठीके कहने छलाह राजा साहेब। पुतोहु तऽ वास्तव मे अद्वितीय छलीह।

 मुदा जिद्द सेहो अद्वितीय छलनि। प्रातहिं अपन प्रथम परिचय देलखिन। जलखइक थारी दिस एक नजरि ताकि के तेहेन ने मुंह घुमा के बैसि गेलीह जे कतबो बौंसल गेलनि, टस सॅ मस नहि भेलीह। जखनि ई समाचार राजकन्या यशोमायाक कान मे पड़लनि जे नवकी कनेआँ रूसि गेल छैक तऽ हुनका बड़ कौतूहल भेलनि। आबि के बौंसए लगलखिन

‘कनेके खा लियऽ, भूखल केओ रहए? अहाँ तऽ हमर दुलरुआ भाउजि छी, कनेके खा लियऽ’

मनोरमा कें ततबा जोर सॅ भूख लागि गेल छलनि जे आओर बरदाश्त नहि भऽ रहल छलनि। तइयो अप्पन जिद्दक टेक रखति बजलीह

‘एह! अहिना कोना खा लिय? एक मास सॅ सुनि रहल छी जे ‘राजाक घऽर मे खाजा भेटत’ ‘राजाक घऽर मे खाजा भेटत’ मुदा एतऽ तऽ खाजाक पते नहि छैक। नइ नइ, हम तऽ राजाक घऽर में पहिने खजे खाएब’।

फेर मुँह घुमा लेलनि मनोरमा। एहेन विलक्षण गप्प पर यशोमाया के हँसी लागि गेलनि मुदा अपना कें संयत राखि, गंभीर मुद्रा बना लेलनि आओर भाउजक अनुमोदन करैत बजलीह

‘से तऽ ठीके, खाजा तऽ हेबाके चाही। थमहू, हम एखनहि मंगा दैत छी’

आगू बजलीह

‘सएह, एतनीटा बात ले अहाँ रूसि कियेक रहलहुं? हमरा कहितहुं, हम अहाँक जेठि ननदि छी से अहिना? एक चंगेरा खाजा मंगा राखितहुं अहाँक लेल। मुदा हमरा कि बूझल छल जे खाजा अहाँ के एतेक पसिन्न अछि?’

जेठ ननदि छथि, से बुझि, पहिने तऽ मनोरमा एक क्षण ते चुप्प भऽ गेलीह मुदा लगले हाथ हिला हिला के कहऽ लगलखिन

‘एह, खाजा तऽ हमरा एकदम्मे पसिन्न नइ अछि, मुदा तइ सॅ की? जखन ई कहबी छैक जे ‘राजाक घऽर मे खाजा भेटत’ तखनि खाजा हेवाक चाही ने थारी मे?’

‘अवश्ये किने, खाजा तऽ हेवाके चाही।- - - ओना कोन मधुर बेसी पसिन्न अछि अहाँ केॅ?’

यशोमायाक प्रश्न पर मनोरमा फेर कनेक चुप्प रहलीह, तखनि आस्ते सॅ कहलखिन

‘माँ मना केेने छल सासुर मे बजै लए, आओर इहो कहने छल जे ‘किच्छु नहि मंगबैक’- - - - मुदा ई पूछैत छथि तऽ - - - रसगुल्ला !- - -’

 भाउजक पसिन्न आओर जिद्द दुनू पूरा करैक आदेश देलखिन यशोमाया। दुनू वस्तु आनल गेल। तखनि जाके दुनू ननदि-भाउजि एकहि संग पनिपियाइ केलनि।

 दोसर परिचय लोक सभ के तखनि भेटलैक जखन मनोरमा कें मोन पड़लनि जे हुनकर एकटा बहिन छथिन एतऽ आओर एखनि घरि ओ बहिन के देखियो नहि सकलीह अछि।

‘बहिनदाइ कें बजा दिय, हम्मर बहिनदाइ कें बजा दिय’ रटऽ लगलीह मनोरमा। जेठि देयादिनी नित्यरमा, बहिन होइथिन, सएह सिखा बुझा के भामा बेटी के सासुर पठौने छलीह। बात ई छलैक जे पिछुलका राति जखन स्त्राीगण लोकनि नव कनेआँक मुंह देखने छलखिन तखन एगारह बरखक नित्यरमा सुतल रहि गेल छलीह आओर एखनि साँझ सॅ पहिने कनेआँ देखबाक नीक बेर छलैक नहि। तैं नित्यरमा नव कनेआँक लग नहि आएल छलीह। मुदा एतऽ तऽ दुपहरिये सॅ मनोरमा तेहेन ने हल्ला मचौलनि जे दुर्गेश्वरी के स्वयं आबि के बुझबऽ पड़लनि। सासुक कहल पर मनोरमा मानि गेलीह आओर नगहर मे एक कात बैसि के साँझ पड़बाक प्रतीक्षा करऽ लगलीह।

 साँझ पड़ितहिं नित्यरमा देयादिनी लग एलीह आओर बजलीह

‘देखू हमहीं छी नित्यरमा, अहाँक बहिनदाइ’

अप्पन बहिनदाइ के चीन्हि के मनोरमा खूब लऽग मे ससरि एलीह आओर चिरपरिचिता जेकाँ बहिनक हाथ गसिया के धऽ लेलनि। आस्ते सॅ कहलखिन

‘बहिनदाइ, माँ लग चलू ने, आब हम माँ लग जाएब’

नित्यरमा घबरा के देयानिनीक मुंह पर अप्पन हाथ राखि देलखिन ‘चुप चुप, माँ आब कत्तऽ? माँक नामो नहि बाजी, माँ आब कत्तऽ?’

कहैत कहैत नित्यरमाक कोंड़ फाटि गेलनि। कानि के देयादिनी के अंक मे भरि लेलनि आओर दुनू बहिन एक दोसराक गऽर धऽ कानऽ लगलीह।

 क्षणे भरि मे चतुरा मनोरमा जेना सभ बुझि गेलीह। बुझि गेलीह जे माँ नहि भेटतीह आब, इहो जे नित्यरमे आब सुख दुखक संगिनी हेथिन आओर इहो जे एतऽ ओ बुलै ले नहि आयेल छथि। आब एत्तहि रहबाक छनि।

 एक अबोध कन्या के माइक कोर सॅ छीनि अनलनि अछि, ताहि अपराध-बोध सॅ दुर्गेश्वरी कें बड़ कचोट होइन्ह। तैं समधिन कें मास भीतरहिं बजा पठऔने छलखिन। साग्रह लिखने छलखिन जे प्रत्येक मास मे बेटी के देखि जाथु। अपनहुँ दिस सॅ मनोरमाक देखरेख मे कोनो कसरि नहि रखने छलीह।

 मुदा मनोरमा बड़ चंचला छलीह। एक दिन नित्यरमा ओसारा पर बैसि के अंगरेजीक किताब मे किछु पढ़ैत छलीह। तखनहि मनोरमा कोम्हरहु सॅ एलीह आओर देयादिनी पर हुकुम चलौलनि

‘बहिनदाइ, पढ़नाइ छोडू़, हमर कनियाँ पुतरा कें कपड़ा पहिरा दियऽ’

मुदा नित्यरमा के एखनि पढ़बाक मोन छलनि, तैं ओ पढ़िते रहलीह। मनोरमा फेर कहलखिन

‘चलू ने, लूडो खेलाइ ले’

नित्यरमा कोनो उत्तर नहि देलखिन, पढ़िते रहलीह। आब मनोरमा अपन कनियाँ-पुतराक पेटी मे सॅ सुई ताग आओर कपड़ाक एकटा टुकड़ा निकालि अनलनि आओर कहलखिन

‘पढ़नाइ बंद करू ने, एकटा कुर्ता सी दियऽ, आइ हम पुरनकी कनियाँ के नव कपड़ा पहिरेबनि’

नित्यरमा कें एखनहुं लीन देखि के मनोरमा के तामस चढ़ि गेलनि। बात बनबए लगलीह

‘की अंटसंट पढ़ैत रहैत छी? कैट के हिज्जे अबैत अछि? सी,ए,टी, कैट माने बिलाइ - - - अच्छा कहू तऽ -- आर,ए,एम के की माने होइत छैक - - - जी नइ भगवान नहि - - - आर,ए,एम, रैम, रैम माने भेड़ा - - - - एफ,ए,टी, फैट, फैट माने मोटकी, जेना अहाँ छी -- मो-ट-की!’

अकच्छ भऽ गेलीह नित्यरमा। आंखि गुरेड़ि के डपटलखिन

‘चुप, चुप्प रहू!’

आखिर बहिनदाइक ध्यान टुटलनि से देखि मनोरमा प्रसन्न भऽ के शैतानी सॅ भरि के पुछलखिन

‘कोना चुप रहू यै, हमरा तऽ चुप्प रहै ले अबिते नहि अछि’

नित्यरमा खिसिया के कहलखिन

‘मुंह सी लियऽ! भूत कहाँ के!’

एतबा कहबाक देरी छल कि अपन दुनू ठोरक आर-पार सुइया घुसा लेलनि मनोरमा! दर्द तऽ सहिये गेलीह, देयादिनी के इशारा सॅ अप्पन आज्ञाकारिताक प्रमाण देखबऽ लगलीह। नित्यरमा आतंके चिचिया उठलीह। लोक सभ दौड़ल। सुइया निकालि के धो-धा के दवाइ लगाओल गेलनि। पुतोहुक करिस्तानी पर दुर्गेश्वरी माथ पीटि लेलनि।

 ओहि दिन, मास्टरनीक आवश्यकता बुझि के राजा साहेब कलकत्ता मे मित्रलोकनि सॅ संपर्क केलनि आओर मास दिनक भीतरहिं मिसेज़ विलियम्स अपन नौ बरखक बेटी ‘रोज़’ कें संग लगऔने कालीगंज पहुंचि गेलीह। रोज़ के, मिसेज विलियम्स दुनू कनेआँक सखीक रूप मे प्रस्तुत केलनि। किछुये दिन मे नील आँखि आओर गोरि चाम वाली रोज़, मनोरमाक अंतरंग बनि गेलीह।

 एहि बीच, हवेली मे कतेको परिवर्तन भेलैक। मिसेज़ विलियम्सक विचार सॅ किलाक विभिन्न भाग कें टेलिफोनक सूत्र सॅ जोड़ि देल गेलैक। एहि सॅ रानी दुर्गेश्वरी के बड़ सुविधा भेलनि। परदाक चलनक कारणे दिन मे राजा सॅ संपर्क केनाइ संभव नहि छलनि, से आब सुगम भऽ गेलनि। हवेली मे स्त्रीगणक उपयोग लेल एक बैठकखाना सेहो बनवाओल गेल जेकरा मखमलक सोफा परदा आओर आदमकद आइना-चित्रादि सॅ सजाओल गेलैक। एकटा ग्रामोफोनहुं मंगाओल गेलैक। आब साँझक बेर मे दुर्गेश्वरी, गोदावरी आओर मिसेज़ विलियम्सक बैसाड़ी ओत्तहि होइन्ह। रंग-रंगक गप्प होइक। लंदनक गप्प, कलकत्ताक गप्प। दुर्गेश्वरी रेकाॅर्ड छाँटि छाँटि के देथिन आओर मिसेज़ विलियम्स ग्रामोफोन पर बजाबथि। क्रमशः राजा साहेबक संध्या आगमन सेहो ओत्तहि होमऽ लगलनि। बहिन से गप्पो करथि आओर पुतोहु लोकनिक प्रगति के समाचार सेहो लेथि।

 दुनू पुतोहु मोन लगा के पढ़ि रहल छलखिन। मनोरमा तऽ बेश कुशाग्र बुद्धि निकललीह। ओ मास्टरनी सॅ बीसियो प्रश्न पूछथि। रेडियो, ग्रामोफोन, मोटरकार, टेलिफोन, सभसॅ संबंधित प्रश्न। टेलिफोनक स्थापना मनोरमाक आंखिक सोझाँ मे भेल छलनि। सभ से वेसी कौतूहल हुनका एही यंत्र सॅ भेलनि।

 एक दिन, कनियाँ-पुतरा सॅ खेलाइत काल ओ रोज़ सॅ पुछि बैसलीह

‘रोज़ यै, अहाँ टेलिफोन चलबऽ जनैत छी?’

मनोरमाक संगतुरिया भइयो के रोज़ बेस बुधियारि छल। कलकत्ता मे रहैक दुआरे ओ कतेक किछु देखने सुनने छल। तैं कनेआँ सभ ओकरा बड़ मानथिन। ओ अप्पन बुधियारी जनबैत बाजल

‘चलबै मे की छैक? चाभी कान मे लगाउ आओर कहियौ ‘हेलो’ ‘ततबै’? ‘हेल्लउ कहनहि सॅ भऽ जेतैक?’

प्रसन्न भऽ के पुछलखिन मनोरमा। रोज़ हुनका बुझबैत कहलकनि

‘अहाँ तऽ बीचहि मे लोकि लैत छियैक, जेहने चाभी कसबैक कि ओम्हर से केओ पूछत ‘कोन नंबर’। जखनि अहाँ नंबर बता देबैक तखन दोसर दिस घंटी बजतैक आओर केओ कहत ‘हेलो’, हेल्लउ नहि, हेलो, बुझलियेक?’

मनोरमा किछु बुझलीह, किछु नहि बुझलीह। फेर पुछलखिन

‘नंबर कोन? - - हँ - हँ- - काल्हिये तऽ हम माँ के देखने छलियेनि। पहिने चाभी घुमौलखिन, फेर कहलखिन ‘एक’, तखन हेल्लउ कहलखिन अओर हमरा ले चाॅकलेट अनै ले कहलखिन’

बात ई छलैक जे एक्कहि दिन पहिने मनोरमाक समक्षे मे दुर्गेश्वरी राजा साहेब के टेलिफोन केने छलीह। सएह मोन पाड़ि के मनोरमा रोज़क गप्प मानि गेलीह। ओ मानि तऽ गेलीह मुदा इहो जानि गेलीह जे कोना टेलिफोन सॅ चाॅकलेट मंगाओल जा सकैत छैक। चाॅकलेटक स्मरण मात्रा सॅ मनोरमाक मुंह मे पानि आबऽ लगलनि। बड़ कठिन सॅ अपना के रोकलनि आओर रोज़क संग खेलाए लगलीह। मुदा अधिक काल धरि नहि रहि भेलनि। चाॅकलेटक अद्भुत स्वाद बेर बेर मुंह मे अबैन्ह और मोन ललचा उठैन्ह। रोज़क हाथ पकड़ि के मनोरमा सीढ़ी सॅ उतरि गेलीह। सीढ़ीक ठीक नीचा मे सासुक कोठलीक केवाड़ लग मे टेलिफोनक यंत्र टाँगल छलैक।

 चोंगा उठा के चाभी कसि देलखिन। लगले ओम्हर सॅ केओ विनम्र स्वर मे बाजल

‘प्रणाम रानी साहिबा, कोन नंबर लगबियैक?’

पहिने तऽ मनोरमा लकथका गेलीह मुदा एक्के छन मे सम्हरि के रोज़ दिस तकलनि जे आंगुर सॅ ‘एक’ के इशारा दैत छलनि। कहि देलखिन

‘ए-ए-एक’

दोसर दिस घंटी बाजऽ लागल। फेर केओ भारी स्वर मे कहलकैक ‘हेलो’

ससुरक कंठ मनोरमा चीन्हि नहि सकलीह। चाॅकलेटक फरमाइश कऽ देलनि

‘हेल्लउ! हेल्लउ -- हमरा ले एक डिब्बा चाॅकलेट---’

पूरा वाक्य बजियो नहि सकल छलीह कि गाल पर एक थप्पड़ लगलनि। सासु के प्रत्यक्ष पाबि के मनोरमाक होश गुम्म भऽ गेलनि। हाथ सॅ टेलिफोनक चोंगा छीनि के राखि देलखिन दुर्गेश्वरी आओर क्रोध सॅ लाल पीयर होइत पुतोहुक कान पकड़ि के बिगड़ऽ़ लगलीह

‘छी छी! बड़ भारी सएतान भऽ गेल छी अहाँ! हवेली मे तऽ केकरहु बात नहिये सुनैत छियैक, आब ससुरो लग नचै के सौख भेल अछि! कहू तऽ भला, एतनीटाक छौड़ी आओर ससुर सॅ सोंझहि ठसाठस गप्प! निर्ल्लज केहेन, चाॅकलेट चाही! हटू हमर सोझाँ सऽ।’

 रोज़ त पहिनहि पड़ा गेल छल। मनोरमा जान लऽ के भगलीह ओतऽ सॅ। एम्हर दुर्गेश्वरी माथ पकड़ि के बैसि रहलीह। क्रोध सॅ देह थर-थर कॅपैत छलनि। ओ कुलीन परिवारक छलीह जतऽ ससुर-भैंसुर सॅ बजनाइ महापाप बूझल जाइत छल। मुखरा मनोरमा सॅ बड़ क्लेशित भेल छलीह ओ। तखन ने आइ पुतोहु पर हाथ छोड़ऽ पड़लनि। - - - - ‘पुतोहु छथिन्हों तऽ बड़ उदंड, एकदम बेश्रृंखला! एहेन नेना पुतोहु आनि के वास्तव मे बड़ गलती भेल - - मुदा ससुर सॅ चाकलेट मंगनाइ? नइ नइ, दंड दऽ के कोनो गलती नहि भेल, मनोरमा छथिये तेहने’

इएह सभ सोचैत एक तरहक ग्लानिबोध होमऽ लगलनि दुर्गेश्वरी के। नोर भरि एलनि। विधवा भामादाइक करुण मुख स्मरण भऽ एलनि आओर बुझना गेलनि जे कोनो अपराध भऽ गेल हो। ‘सत्ते तऽ, पहिने केकरो एकमात्र बेटी के दूध छोड़ा के लऽ अनलियैक। फेर ओकरा आवेश सॅ पोसितियैक से त नहि, सासु बनि के सीख पर सीख देमऽ लगलियैक। फटकार आ मारि! बेचारी कनियेटाक जान, हमरा ‘माँ माँ’ कहैत मुंह टुटैत रहैत छैक ओकर, आओर एक हम छी जे ओकरा मारि बैसलियैक!’

दुर्गेश्वरी कानऽ लगलीह।

 किछु कालक बाद जखन मोन कनेक हल्लुक भेलनि तऽ एके बेर स्वाभाविक स्त्रियोचित ममत्व जोर मारऽ लगलनि। मनोरमा लेल मोन करुण भऽ उठलनि।

‘बौंसब हम पुतोहु के, दुलार मलार कऽ के मना लेब अप्पन मनोरमा कें’

निश्चय कऽ के दुर्गेश्वरी उठलीह आओर संदूक सॅ ढाका वला कंगनाक डिब्बा बाहर केलनि जे पिछुलका मास सौदागर सॅ किनने छलीह आओर मनोरमा कें बड़ पसिन्न पड़ल छलनि। ‘इएह दऽ के ओ पुतोहु के बौंसि लेतीह’ से सोचि ओ गहनाक डिब्बा हाथ मे लऽ के मनोरमा के ताकऽ लगलीह। मुदा हवेली मे कनेआँ सभक कत्तहु पता नहि छलनि। तकैत तकैत दुर्गेश्वरी हवेलीक फुलवारी लग पहुंचि गेलीह। केवाड़ सॅ हुलकैक संग दंग रहि गेलीह।

 मनोरमा लतामक गाछ पर चढ़ल छलीह। नुआ समेटि के फाँड़ कसने! नीचाँ सॅ नित्यरमा आओर रोज़ देखा रहल छलखिन आओर मनोरमा लताम तोड़ि तोड़ि के फेकने जाइत छलीह नित्यरमाक खोइंछ मे।

 दुर्गेश्वरी के अपन नेनपन मोन पड़ि गेलनि। अहिना ओहो एहि महागृह मे पुतोहु बनिकऽ आएल छलीह। दसे बरखक छलीह तखन। तितली जेकाँ उड़ैत फिरथि सखी सभक संग, कोन गाछक फल पकलै कि एखन काँचे छैक, सभक खबरि रखैत छलीह। किछु क्षणक लेल दुर्गेश्वरी अतीत मे चलि गेलीह। फेर सजग भऽ के केवाड़े लग सॅ घुरि एलीह।

 कनिक्के काल पहिलुका मारि बिसरि गेल छलीह मनोरमा, से देखि आश्वस्त भऽ गेलनि मोन। सोझें मनोरमाक कोठली मे गेलीह आओर सिरहौना मे कंगनाक डिब्बा राखि देलखिन। फेर जेना किछु मोन पड़लनि। पुतोहुक काॅपी सॅ एकटा पन्ना फाड़ि के ओइ पर लिखलनि ‘अहींक माँ दुर्गेश्वरी’। फेर पुर्जा मोड़ि के कंगनाक डिब्बा मे खोंसि देलखिन आओर कोठली सॅ बहरा गेलीह।