सती-लक्ष्मी
मालपुआ नहि खा सकलाह यशनंदन। मात्र एक टुकड़ी मुंह मे दऽ के, उठि गेलाह, गोदावरी ‘हाँ हाँ’ करिते रहि गेलीह। मोन कोनादन भऽ गेलनि। आंखि नोरा गेलनि। केओ बुझनि नहि, तैं मुंह घुरा के आंखि पोंछि लेलनि यशनंदन।
मुदा सोदरा सॅ भला मोनक वेदना नुकाओल रहैक, गोदावरी भाइक मनोदशा ताड़ि गेल छलीह। अपना कें सम्हारैत, गह्बरित कंठ सॅ सोर पाड़लखिन
‘भाइ-साहेब, भाइ-साहेब, एना नहि करू भाइ-साहेब, सम्हारू मोन कें! आजुक दिन मोन एना घोर नहि करी। लियऽ जल पिब लियऽ, मोन के स्थिर करू।’
एकान्त करबाक निर्देश दऽ के गोदावरी छोट भाइक माथ हॅसोथए लगलीह। मुदा मोन अपनहुं घोरे छलनि गोदावरी दाइक। जखनि सॅ खबरि आएल छलैक, सभ किछु असामान्य सन भऽ गेल छलैक राजमहल मे। खबरि के कतबो गोपनीय राखल गेल छलैक मुदा से कोना ने कोना लोक सभ के किछु भनक लागिए गेल छलैक जे राजकुमारी कृष्णा अशांत छलीह, परम अशांत। चारू कात कानाफूसी होमए लागल छलैक। कहबी छैक ने ‘राज दरबार मे हवा बसात बजै छैक’।
साल भरिक पर्व कतहु रोकल जाइक, से कोनो तरहें गोदावरी सभटा व्यवस्था करबौने छलीह। दुनू बहिन मिलि के कोन तरहक उमंग सॅ मनबैत छलीह फगुआक पर्व! मालपुआक घोल तैयार करैत काल मे कृष्णा बेर बेर मोन पड़ैत छलखिन गोदावरी के। कृष्णा कतेक बखेड़ा पसारने रहितथिन दिनुका भोजनक व्यंजन तय करै काल मे? ‘अइ बेर पोस्ताक बड़ी बला पोलाव बनाओल जेतैक फगुआ मे’‘
"नहि नहि, परुकों तऽ वएह बनल छलैक, अइ बेर शाही पोलाव!" आइ छोटकी बहिन बिनु बड़ सुन्न लगैत छलनि गोदावरी कें। तइयो सभ काज निपटौलनि। मुदा जखन भाइक अगुआनी करबाक लेल रनिवासक फाटक लग गेलीह तऽ मोन एकदम असहज भऽ गेलनि, नितान्त असगर पड़ि गेल छलीह। कना जेकाँ गेलनि। भारी मोन सॅ भाइक माथ पर अबीरक तिलक लगौलनि आओर हाथ पकड़ि के हवेली मे लेने एलखिन। राजा यशनंदन सिंह जेठ बहिनक पएर पर गुलाल दऽ के प्रणाम केलनि। बहिन आसन पर बैसा के आगू मे मालपुआक सराइ राखि देलखिन- - - -मुदा मालपुआ नहि खा सकलाह।
‘आजुक दिन कृष्णा कतेक प्रसन्न रहैत छलीह, नहि जानि कोन हालत मे हेतीह! कोन जन्मक बैर निकालि रहल छथि झोटका ओझा जी हमरा लोकनि सॅ!’
राजा साहेब जलक घोंट लैत बजलाह। गोदावरी पुछलखिन
‘नव कोनो समाचार?’
‘चर सभ तऽ लगा देने छियैक, परसुक्का धरि तऽ एतबे जे बाध मे फूसक कुटिया बान्हि देने छथिन ससुर, ओही कुटिया मे एकटा तपस्विनी जेकाँ रहैत छथि कृष्णा, केओ देखनिहार नहि, मात्र एकटा खबासिनक भरोसें हम्मर बहिन- - -’ रुमाल सॅ आँखि झाँपि लेलनि यशनंदन
‘हमर बहिनक ओहेन दुर्गति करै मे कनेक्को मोन नहि कॅपलनि ओझाजी के!’ विकल भऽ गेलनि मोन गोदावरी दाइ केर।
भाइक माथ हॅसोथैत बजलीह ‘मंगा लियौक कोनो उपाय सॅ! हमरा तऽ डर होइत अछि जे ग्लानि आओर अपमान सॅ जहर माहुर ने खा लैक बेचारी!’
‘पक्का खबरि बुझतहि मंगबा तऽ हम लेब्बे करबनि, ओइ चंडाल सभ लग तऽ नहिए रहए देबनि! आ ओझाजी के सेहो एकर दंड भेटतनि! कतेक दिन तक नुकाइत छथि से देखियनि हम!’ यशनंदन उत्तेजित भऽ के बाजि उठलाह।
‘सएह ने, इएह करबाक छलनि तखन लइए किएक गेलखिन?’
‘कृष्णा अड़ि जैतथि तऽ किन्नहुं नहि लऽ जा सकितथिन ओझाजी, केक्कर मजाल छलैक जे एत्तऽ सॅ लऽ जैतनि! मुदा कृष्णे कमजोर पड़ि गेलीह! हुनका नहि जेबाक चाहैत छलनि!’राजा बजलाह
गोदावरी कनेक काल गुम्म भऽ गेलीह। फेर आस्ते से बजलीह
‘मंगा लियौ कोनो तरहें, नहि जानि जीवितो छोड़ने हेतै कि नहि, चंडलबा सभ! - - -नीक नहि केलनि ओझाजी! ओह!’
‘कहिया नीक केलनि जे आब करताह?’ उत्तेजना सॅ मुंह लाल भऽ गेलनि यशनंदन केर
सत्ते, कहिया नीक केने छलखिन छोटका ओझाजी? मानल जे चोरा के विवाह भेल छलनि। मुदा से तऽ विगत चारि पुश्त सॅ होइत आएल छलैक कालीगंज रियासत मे।
कालीगंजक ब्राह्मण राजवंश श्रोत्रिय नहि छल। तैं कुलीन श्रोत्रिय सॅ संबंध, हुनका लोकनि के बड़ श्रेयस्कर लगनि। ऐहेन नहि छलैक जे श्रोेत्रिय लोकनि कालीगंजक संबंध से साफे कतराति होथि। अतुल वैभवक लोभ सॅ कतेक उच्च श्रेणीक लोक भीतरहिं भीतर ऐहेन संबंध बनबैक लेल लालायित रहैत छलाह। अधिक काल तऽ बेश मोटगर मूल्य ओसुलि के वऽरक सौदा करैत छलाह ई लोकनि।
ओना तऽ छोटका ओझाजीक बाप अपनहुं छोट-छीन जमीन्दारे छलाह मुदा आकंठ कर्ज मे डूबल छलाह। कालीगंज सॅ संबंध कऽ के कर्जदार सभ सॅ निजात पाबए चाहैत छलाह। चुपचाप दस हजार टाका लऽ के बालकक सौदा कऽ लेलनि महीपति झा। एक्कैस बरखक गोर-नार, पढ़ल लिखल वऽर भेटलनि कालीगंज बला के, ताहि पर श्रोत्रिय, ताहि पर जमींदार। नेहाल भऽ जाइ गेलाह।
मुदा विवाहक बरख भीतरे अपन असली जमींदारी रंग देखबए लगलखिन ओझा इंद्रपति झा। हुनका जेना किछु पसिन्ने नहि पड़नि। राजमहलक सभ व्यवस्था हुनका प्रतिकूले बुझि पड़नि। पहिने भनसीया बदलल गेलाह किएक तऽ ओझाजी के हुनक रान्हल सॅ जी ओकाइन्ह। पछाति खवासो बदलि लेलनि। एतऽ तक जे रहबाक मकानो पृथक सॅ बनबेवाक मांग कऽ बैसलाह। बड़का ओझाजी सन गउ लोक, आ सेहो नहि सोहाथिन इंद्रपति झा के।
किलाक उतरबरिया दिस मे, जेम्हर जमाए लोकनिक आवास छलनि, ओम्हरे कनेक हटि के कुटुंबक अतिथिशाला सेहो छलैक। बड़का ओझाजीक सरल आओर मिलनसार व्यक्तित्वक चलैत लोक सभक आवाजाही लागल रहैत छलैक। गप्प सरक्का चलैत रहैत छलैक। से छोटका ओझाजी के एक्को रत्ती पसिन्न नहि पड़नि। पहिने कुमर यशनंदन के कहलखिन, फेर नवविवाहिताक माध्यम सॅ राजमाता के।
‘भरि दिन मकानक ओइ खंड मे ततेक अबरजात रहैत छैक जे एक्कहु क्षण चैन नहि पड़ैए! मजाल छी जे एक घड़ी सुति सकी कि दू अक्षर कोनो उपन्यासक पढ़ि ली! असंभव।’
दूर हटि के दोसर भवन बनाओल गेल। तिरहुत सॅ आनि के नव भनसीया, नव खवास, नव टहलू रखलनि नवका ओझाजी। किछु दिन तक सभ नीके बुझि पड़लैक मुदा आस्ते आस्ते जमींदार-पुत्रक पुरनका प्रवृत्ति, पुरनका आदति सभ दृष्टिगोचर होमए लागल। हारमोनियम आएल, तबला-जोड़ी आएल, कलकत्ता सॅ किना के ग्रामोफोन आएल आओर ओहि संग बाईजी आओर खेमटावाली सभक ठुमरी दादरा सॅ भरल रेकाॅडक डिब्बा आएल। देर राति तक गाना-बजाना चलए लागल। कखनहुं के जखनि पछबाक झोंक पर मासु मे भूजल पियाजु के भभक बड़का ओझाजीक नाक तक पहुंचनि तऽ मोन बेचैन भऽ जाइन्ह। निशब्द राति मे जखन वज़ीर जानक ‘इन्ही लोगोंने ले लीन्हा दुपट्टा मेरा’ कान मे पड़नि तऽ तिलमिला के करोट फेरि लेथि आओर बालिश्त सॅ कान मुनि लेथि। इंद्रपतिक पृथक आओर एकांत अमरावतीक भेद शनैः शनैः खुजए लागल। ओइ दिन सभ हद पार भऽ गेल जखन राजमाता के अपन विश्वस्त चर द्वारा ज्ञात भेलनि जे कलकत्ता सॅ एक कठरा विदेशी सोमरस मंगबौलनि छोटका ओझाजी। अवाक रहि गेलीह राजमाता साहेब। भविष्यक आशंका सॅ चिंतित भऽ उठलीह। मुदा एहि सॅ आगाँ बढ़बाक हिम्मत नहि भेलनि इंद्रपति झा के। थमि गेलाह। मुदा स्थिर नहि रहि सकलाह। स्थिरता स्वभावे मे नहि छलनि।
एक दिन संध्याकाल मे दीवान साहेब भेट करै ले एलखिन। कुशल-समाचारक बाद एकटा अंग्रेजी पत्रिका देलखिन ओझाजी के। ओइ मे रंग बिरंगक मोटरकार सभक तस्वीर छपल छलैक। पत्रिकाक किछु चिन्हित पन्ना देखा के दीवान साहेब बजलाह
‘एहि सभ मे सॅ जे अपने के पसिन्न हो से कहल जाओ, वएह मोटरकार कीनल जाएत अपनेक लेल, राजमाता साहेबक सएह आदेश छनि’
पत्रिका लऽ के प्रसन्न मोन सॅ पन्ना उनटाबए लगलाह ओझाजी मुदा लगले अकछा के टेबुल पर राखि देलखिन। मुंह बिधुआ लेलनि। दीवान साहेब पहिनहुं सॅ सशंकित छलाहे। बुझबा मे कोनो भाँगठ नहि रहलनि जे ओझा इंद्रपति बखेड़ा पर उतारू छथि, ऐरावत सॅ कम मे मानताह नहि। आस्ते सॅ पुछलखिन
‘कोनो पसिन्न नहि? दोसर पत्रिका लऽ के हम शीघ्र हाजिर होइत छी श्रीमान लग’
‘जाउ नहि दीवानजी, हमर उत्तर सुनने जाउ’
व्यंगात्मक हंसी हंसैत इंद्रपति झा अपन निर्णय सुना देलखिन
‘राजमाता साहिबा के हमर प्रणाम कहबनि, आओर कहबनि जे जखन पुत्र बना के रखलनि ए तऽ तहिना व्यवहारोक अपेक्षा हम करैत छियनि हुनका सॅ, बड़का कुमर लेल राॅल्स राॅइस आओर हमरा लेल टी माॅडेल फोर्ड! इएह उचित?’
दीवान साहेब सकपका गेलाह, बजलाह
‘नहि नहि, अपने फोर्ड पर किएक चढ़ब? पचास सॅ उपर चित्र छैक अइ मे, स्टेंडर्ड छैक, एल्कार छैक- - - -’
आगू बाजि नहि सकलाह दीवान साहेब, छोटका ओझाजी उठि के भीतर जा चुकल छलाह।
जमाएक समाद पहुंचा देलखिन दीवान साहेब, राजमाता लग।
अगिले मास मे कुमरक ‘राजगद्दी’ हेबाक छलनि। दिल्ली मे निर्णय भऽ गेल छलैक जे आगामी ‘बड़ा दिन’ मे कुमर यशनंदन के ‘राजा बहादुर’ बना देल जेतनि, से गुप्त सूचना भेट गेल छलनि राजमाता के। बहुत रास तैयारी करबाक छलैक। महल मे रंग रोगन भऽ रहल छलैक। दरबार कक्ष के नव कऽ के सजाओल जा रहल छलैक। बड़का बड़का हाकिम हुक्काम के ठहरेबाक लेल यूरोपियन अतिथिशाला के आधुनिक सुख सुविधा सॅ लैस कएल जा रहल छलैक। अइ व्यस्तता मे ओझाजीक फरमाइशक वक्रता पर केकरो घ्यान नहि गेलैक। राजमाता के एको रत्ती तामस नहि भेलनि। सुनि के मुसकि देलखिन। कहलखिन
‘एतेक दिन पर भगवती प्रसन्न भेलीह ए, ओझाजी जेहेन मोटरकार लेताह तेहेन देल जेतनि’
दीवान साहेब के इच्छा भेलनि किछु परामर्श देबाक, मुदा राजमाताक उद्गार देखि गुम्म रहि गेलाह। राजा बहादुर यशनंदन सिंह ले रोल्स राॅइस एलनि तऽ छोटको ओझाजी लेल आबि गेलनि। मुदा वएह क्षणिक उद्गार तेहेन विष भऽ गेलनि सुनयना देवी लेल जे प्राणे लऽ के छोड़लकनि।
मोन अत्यधिक बढ़ि गेलनि इंद्रपति झाक। राजा सॅ होड़ लियऽ लगलाह। राजकुलक मर्यादा के नगण्य बुझए लगलाह। अपन कुलीनत्व बिसरि गेलाह। बिसरि गेलाह जे बाप पाइ लऽ के बेचने छलखिन कालीगंज मे। बस एक्कहि भूत सवार भऽ गेलनि जे हमरा ओ सभ किछु चाही जे राजा के छनि। गाड़ी मकान तक सीमित नहि रहलाह। सभ सीमा पार कऽ गेलाह। राज-पाट मे हिस्सा मांगि बैेसलाह! मांग पूरा नहि भेला पर मोकदमा तक के धमकी दऽ बैसलाह इंद्रपति झा!
जमाएक दावा सुनि के एक क्षण ले हतप्रभ भऽ गेलीह राजमाता सुनयना देवी। मुदा लगले संम्हारि लेलनि अपना के। जीवन मे बड़ उतार चढ़ाव देखने छलीह, बड़ अपमान सहने छलीह। बड़ कठिने राज पाट बचौने छलीह। आइ सभ तरहें सुखी छलीह सुनयना देवी। मोनहिं मोन दृढ़ निश्चय कऽ लेलनि। अपन अडिग संकल्प आओर असीम धैर्यक बल पर, जेना एतेक संकट सॅ पार उतरल छलीह तहिना एहू कंटक के भेद लेतीह, से तय कऽ लेलनि।
गंभीर मंत्रणाक बाद राजमाता साहेब साम-दामक नीति तय केलनि। दंड आओर भेदक आवश्यकता नहि पड़तनि, एतबा विश्वास छलनि अपना पर। समधि के पत्र लिख के बजौलखिन। सभ ऊँच नीच बुझाओल गेलनि। मोकदमाक दुष्परिणामो दिस किंचित इंगित कएल गेलनि। महीपति झा बुझि गेलाह, ओ बहुत दुनिया देखने छलाह। आइ जे जमींदार कहाइत छलाह से कालीगंजहिक बदौलति। मुदा जेकरा बुझबाक छलैक, से एक रत्ती कानो-बात नहि लेलखिन। कहलखिन
‘हमरा जे एतेक धर्म आओर संस्कार सिखा रहल छी से ओइ दिन कतऽ छल? जै दिन अपन स्वार्थ ले हमरा अइठाम बेचि देलहुं! हमरा देस-निकाला दऽ के तीनू बेटाक संग जमींदारी भोगि रहल छी आओर हमरा ज्ञान दऽ रहल छी? जाउ जाउ! बेसी उपदेश नहि छाँटू’
निरुत्तर भऽ गेलाह महीपति। घुरि गेलाह।
अंत मे हारि दारि के बड़का ओझाजीक संग एक बेर फेर दीवान साहेब गेलाह छोटका ओझाजीक बासा पर। हुलसि के कहलखिन
‘मधुर खुअबियौक साढ़ू! जे केओ नहि कऽ सकल से अहाँ कऽ देखौलियै यौ! राजमाता साहिबा के झुका देलियनि अहाँ तऽ!
‘से की?’ इंद्रपति झा के जेना अपन कान पर विश्वास नहि भेलनि
‘तऽ की सरिपहुं- - - -?’
‘तऽ आओर की?, जे कहियो नहि भेल से अहाँ कऽ देलियै, अपनेक मासिक भत्ता दू सए सॅ बढ़ा के चारि सए कऽ देलनि राजमाता साहेब! अहाँक विजय भेल! भेल की नहि?’ दीवान साहेब खुशखबरी देलखिन।
बड़का ओझाजी बिहुंसैत बजलाह
‘दीवानजी, देखबियनु ने भत्ता बला बही, आओर रातमाता साहेबक आदेशनामा’
तुरंत दीवान साहेब बही खोललनि आओर चारि टा नमरी निकालि के छोटका ओझाजी के आगाँ मे राखि देलखिन। बही पर दस्तखत करै ले कलम बढ़ौलखिन। हठाते उठि के ठाढ़ भऽ गेलाह छोटका ओझाजी। भृकुटी चढ़ि गेलनि।
‘ओ! अच्च्च्छा! हमरा दुधमुंहा नेना बुझैत छी अहाँ लोकनि? झुनझुना देखबै जाइ छी हमरा? जा के कहि दियनु सुनयना देवी के? केदली सहित पाँच टा ताल्लुका चाही हमरा! भिखमंगा नहि बुझथु इंद्रपति के!’
बजैत बजैत ठाढ़ भऽ गेलाह छोटका ओझाजी, क्रोध से मुंह लाल भऽ गेलनि। आओर किछु बजितथि मुदा से अवसर नहि देलखिन बड़का ओझाजी। दीवान साहेबक हाथ पकड़ि के बजलाह
‘चलू यौ, आब नहि बर्दाश्त हएत हमरा! मर्यादाक सभ सीमा पार कऽ गेलाह ई’
दुनू गोटे विदा भऽ गेलाह। अक्षरशः सभटा राजमाताक कान मे पड़लनि। अइ बेर ओहो तिलमिला गेलीह। जीवन मे बड़ अपमान सहने छलीह सुनयना देवी मुदा एहेन उत्तरक आशा नहि छलनि हुनका। एक्कहि क्षण मे निर्णय लऽ लेलनि राजमाता साहेब। साम-दाम-भेद सॅ सोझहिं दण्ड पर आबि गेलीह।
‘बेश तखन! मोकदमे करथु! हम्मर जीबैत जी आब किच्हु नहि भेटतनि! हुनक पहिलुको भत्ता आइ से बन्न। लिखू हमर आदेश!’
चिकक ओइ पार सॅ दीवान साहेब मुड़ी झुकौनहि बजलाह
‘जी, आदेशक पालन हेतैक’
‘हूं’
मंत्रणा सभाक समाप्ति बुझि दीवान साहेब उठि गेलाह। राजा साहेब आओर बड़का बोझाजी सेहो विदा भऽ गेलाह। हुनका लोकनि के कनेको आभास नहि भेलनि जे चिक-परदाक भीतर दिस राजमाता कतेक अस्वस्थ भऽ गेल छलीह।
एहेन आदेश दऽ के स्थिर नहि रहि पओलीह सुनयना। एना कहियो नहि हारल छलीह। बुझना गेलनि जेना सभ किछु गोल गोल घुरि रहल हो। चक्रवात जेकाँ - - - मसनदक सहारा लेबाक प्रयास केलनि मुदा नियंत्राण नहि रहलनि। एक कात टगि गेलीह। गोदावरी आओर नाहरवाली उठा पुठा के पलंग पर सुता देलखिन। शीतल जल सॅ मुंह पोछि देलखिन। कनेक कालक बाद राजमाता आँखि खोललनि। चारू कात ताकि के गोदावरी दाइ पर नजरि स्थिर भऽ गेलनि हुनक। गोदावरी बुझि गेलीह। गुप्त रखवाक छलैक ई घटना। राजमाताक मनोव्यथा केकरो पर प्रकट नहि करवाक छलैक।
ओहि दिनक घटना तऽ गुप्त रहलैक मुदा राजमाताक अस्वस्थता कोना नुकाओल जैतैक। कनेक टा मानसिक आघात नहि लागल छलनि। मास दिनक भीतरहिं तेहेन शारीरिक दौर्बल्य सॅ पीड़ित भेलीह जे वैद्यराज आओर हकीम साहेब हाथ उठा देलखिन। सिविल सर्जन साहेब एलाह आओर निरीक्षणक बाद कलकत्ता मे कोनो विशेषज्ञ के देखेबाक सलाह देलखिन।
कलकत्ता लऽ गेलखिन राजा साहेब। पाछाँ सॅ रानी दुर्गेश्वरी देवी आओर गोदावरी दाइक संग बड़का ओझाजी सेहो गेलाह। गढ़ी मे रहि गेलाह मात्र दू गोटए, कृष्णा दाइ आओर छोटका ओझाजी। उन्मुक्त भऽ के विचरथि दुनू गोटए हवेलीक फूलवारी मे, कोनो रोक टोक नहि। कृष्णा पति-प्रिया छलीह, पति-परायणा सेहो। जेना जेना ओझाजी कहथिन तेना तेना करथि। कहियो कमलताल लग मे, कहियो फव्वारा लग मे, तऽ कहियो झूला पर बैसि के नव नव मुद्रा मे फोटो खिंचावथि कृष्णा दाइ। कोनो दिन फारसी, तऽ कोनो दिन बंगालक परिधान मे, जेना कहथिन ओझाजी तहिना श्रृंगार करथि छोटकी दाइजी। ओझाजी गरदनि मे राॅलिफ्लैक्स कैमरा लटकौने भँमरा बनल डोलथि फिरथि कृष्णाक पाछाँ पाछाँ। कृष्णा नेहाल छलीह पति-प्रेम मे। आब हवेलीए मे भोजनहुं करऽ लगलाह, कृष्णा अपनहिं हाथें किछु ने किछु नव व्यंजन बनाबथि। एक दिन बड़ जतन सॅ दाइजी रामरुचि बनौलनि। ओझाजी कहलखिन
‘बड़ दिब भेल अछि, एकदम हमर दाइ सन’
नेहाल भऽ गेलीह दाइजी, मुदा कनेक उदासो भऽ गेलीह, बजलीह
‘आह, से भाग्य कहाँ? जे हम हुनका लोकनि के रान्हि के खुएबनि’
सुअवसर भेट गेलनि ओझाजी के, कहलखिन
‘से कोन कठिन छैक, चलू काल्हिए लऽ चलै छी!’
‘केओ गेलैए जे हमरा लऽ जाएब? नहि नहि, अजगुत नहि बाजू’
‘अजगुत हम नहि बजै छी यै, अजगुत होइत अछि अहाँक नैहर मे, जे बेटी के रखै जाइत छथि! नहि तऽ कोन बेटी सासुर नहि जाइए?’
निरुत्तर भऽ गेलीह कृष्णा, सत्ते बजैत छलखिन ओझाजी, कोन बेटी सासुर नहि जाइत अछि?
ओझाजी जाल फेक चुकल छलाह। एम्हर ओम्हर के गप करैत भोजन समाप्त केलनि। मंद मंद मुसकैत अपन बासा दिस विदा भऽ गेलाह। बेरू पहर फेर भेंट भेलनि फुलवारी मे। फूल पातक चर्चा करैत करैत अपन ड्योढ़ीक भालसरिक गाछ आओर ओहि सॅ लागल मचकी पर प्रिया संग झुलबाक कामना व्यक्त केलनि। फेर उदास भऽ गेलीह दाइजी।
जखनि भेंट होनि कोनो ने कोनो लाथे गामक प्रसंग फोलथि ओझाजी, आकि दाइजी उदास भऽ जाथि । शनैः शनैः पति गृहक सहज चाह जागि उठलनि। ओझाजी सएह तऽ चाहैत छलाह। सहजहिं मना लेलनि दाइजी कें। सत्रहे बरसक तऽ बएस छलनि। राजकन्या भइयो के, पतिक चक्रचालि नहि ताड़ि पौलीह। जेबाक लेल तैयारे नहि, उद्यत भऽ उठलीह। ने केकरो पुछलनि, ने विचार लेलनि, ने केकरो कानो कान खबरि होमए देलखिन। निशब्द राति मे बस्तुजात ओरियौलनि, पतिक निर्देशानुसार एक पेटी मे बनारसी-पटोर आओर दोसर पेटी मे गहना गुरिया भरलनि। भुरुकुआ उगला पर जहिना ओझाजीक मोटरकार हवेलीक फाटक पर लगलैक कि चुपचाप विदा भऽ गेलीह।
विदा तऽ भऽ गेलीह मुदा हवेलीक फाटक लग आबि के एकाएक सहमि गेलीह राजकन्या। एक क्षण ले ठिठकि गेलीह। एकटक राजमाताक भवन दिस तकति रहलीह कनेक काल धरि। कना जेकाँ गेलनि। कतबो किछु तऽ पहिल बेर सासुर जाइत छलीह। खोइंछ - घरभरीक कोन कथा, केओ विदा केनिहार तक नहि छलनि। केकरा गोड़ लागि के विदा हेतीह? केकर गऽर लागि के कनतीह? जखन ओझाजी लग मे आबि के ठाढ़ भऽ गेलखिन तखन भक्क टुटलनि दाइजी के। मोनहि मोन गोसाउन के प्रणाम करैत पतिक संग पिछुलका सीट पर बैसि गेलीह। सिपाही सभ अवाक भेल देखैत रहि गेल। मोटरकार किला सॅ बहरा गेलैक।
बड़का ओझाजी पहिनहिं सॅ सशंकित छलाह। छोटका ओझाजी आओर छोटकी दाइजीक कार्य कलापक नित्य सूचना भेटैत छलनि हुनका। भोरे भोर कालीगंज सॅ आएल टेलीग्राम देखैत देरी कोनो अनहोनीक आशंका सॅ माथ ठनकि उठलनि। समाचार पढ़ि के स्तब्ध रहि गेलाह। एत्तेक टा साहस कोना भऽ गेलनि इंद्रपति के? बिनु द्विरागमनहिं कोना लेने गेलखिन कृष्णा दाइ कें? आ सेहो बिनु राजाज्ञा के? कनेक काल तऽ गुम्म रहि गेलाह बड़का ओझाजी। बाद मे इएह निर्णय लेल गेल जे राजमाता साहेब के ई दुःसमाचार नहि देल जानि। राजा साहेबक सेहो इएह विचार छलनि। राजमाता कदाचित् नहि सहि सकतीह। पहिनहिं सॅ टुटि गेल छलीह। अति रुग्णा छलीह ओ। मुदा समाचार नुकाइयो के कोनो लाभ नहि भेलनि। विकट हृदय-रोग आओर तोड़ल-झकझोरल मोनक आगाँ नहि ठठि सकलीह राजमाता साहेब। विदा भऽ गेलीह। भावी के, के टालि सकैत अछि?
ओम्हर छोटका ओझाजी अपन पूर्व निर्धारित योजना मे भिड़ गेलाह। गाम जा के की करितथि? सैर करबाक लाथें सोझे बनारस लऽ गेलखिन दाइजी के। महमूरगंज मे एक टा पैघ सन मकान किराया पर लऽ के टिक गेलाह। सभ सॅ पहिने एक सुख्यात वकील सॅ संपर्क केलनि। तकर बाद स्त्री केर प्रमोदार्थ घुरै फिरै के कार्यक्रम बनौलनि। नित्य भ्रमण करथि दुनू गोटए। भिनसर मे देवस्थान आओर साँझ मे आमोद-प्रमोद। मुदा दिनुका समय वकीलक परामर्शक लेल सुरक्षित रखैथ इंद्रपति। दाइजी के एकर भनको नहि लागऽ देलखिन। कएक बैसारक बाद मोकदमाक रूपरेखा तऽ तैयार भऽ गेलनि मुदा खर्चक समस्या मुंह बाबि के ठाढ़ भऽ गेलनि। एम्हर मकानक किराया, नौकर चाकर केर दरमाहा, आश्रमक खर्च, आमोद प्रमोदक व्यवस्था, आओर ओम्हर वकीलक फीस से लऽ के कोर्ट कचहरीक अनुमानित व्ययाधिक्य। ताहि पर सॅ राजकन्याक खुजल हाथ। रसिक स्वभावक तऽ इंद्रपति पहिनहिं सॅ छलाह, बनारसक आनो व्यसन सभ नीक जेकाँ धऽ लेने छलनि । कालीगंजक भत्ताक तऽ प्रश्ने नहि। अपनहिं ठुकरा आएल छलाह अपन आमद, एहि अज्ञातवास मे दाइजीक मासिक भत्ता केर सेहो मार्ग बन्न भऽ गेल छलनि। जमा कएल टाका कतेक मास चलितनि। राजकुमारी कृष्णा देवीक फर्जी दस्तखत कऽ के मोकदमा ठोकि तऽ देलखिन अपन सार पर, मुदा जखन तारिख पर तारिख पड़ए लगलनि तखन खर्च जुटौनाइ असंभव बुझना जाए लगलनि।
ओतेक रूसि फुलि के जे मोटरकार हासिल केने छलाह, सएह सभ सॅ पहिने बेचए पड़ि गेलनि। बेस पाइ देलकनि। मुदा इंद्रपति केर शाहखर्चक आगाँ ओहो कम्मे भऽ गेलनि। साल भरिक बाद औंठी सभ बेचऽ लगलाह। एक एक कऽ के सभटा पाॅकेट घड़ी बिका गेलनि। जाहि दिन पहिल दोशाला बेचबाक लेल दाइजी सॅ पेटीक कुंजी मंगलखिन, तखन दाइजी के नहि रहल गेलनि। हाथ पकड़ि लेलखिन
‘ई नहि बेचू! ददाजीक निशानी थिक ई दोशाला! अहाँ के हमर सप्पत’
इंद्रपति थमि गेलाह। स्त्रीक दिस ताकए लगलाह आश्चर्य सॅ। आइ धरि कृष्णा कोनो बात ले नहि टोकने छलखिन हुनका। ओहूदिन किछु नहि बाजल छलीह जखन इंद्रपतिक अनुपस्थिति मे कोर्टक नोटिस दऽ गेल छलनि कृष्णाक हाथ मे आओर ओ हठाते बुझि गेल छलीह जे हुनका सॅ नुका के हुनकर नैहर पर नालिश कएल गेल छनि। अपमान आओर ग्लानि-बोध सॅ एकांत मे खूब कानल छलीह फफकि फफकि के, मुदा चुप रहि गेल छलीह। ओहूदिन किछु नहि बाजल छलीह जखन चारि दिन सॅ लापता हुनक पति के मदिरा सॅ बेहोश हालत मे लोक सभ नवाब जानक कोठा सॅ उठा पुठा के अनने छलनि। चुप्पे मुंहे पतिक सुश्रुषा मे लागि गेल छलीह। से आइ कोना बजा गेलनि कृष्णा के?
‘नहि बेचू तऽ की करू?’गुमगुमा गेलाह इंद्रपति
‘ई नहि! आन किछु बेच लियऽ’
स्त्राीक निर्णायक स्वर सॅ कनेक डरि गेलाह इंद्रपति झा। नवाबजानक कोठा सॅ आनल गेलाक बादहिं सॅ कृष्णाक सहनशक्ति आओर सतीत्व से कतहु ने कतहु बड़ प्रभावित भेल छलाह। नजरि नहि मिला सकलाह, मुड़ी झुकौनहिं आस्ते सॅ बजलाह
‘कोर्ट मे मामला तूल पकड़ने अछि, संभवतः एक मासक भीतरहिं जीत जाएब मोकदमा! इएह अंतिम वस्तु बेचैत छी।’
कृष्णा एक क्षण धरि जड़वत् ठाढ़ रहलीह, शून्य मे तकैत।
‘ई नहि! आन किछु बेच लियऽ!’ अपन बाजल के फेर दोहरबति आंगुर सॅ हीराक औंठी खोलि के पति के सौंपि देलखिन। बजलीह
‘हुनके वस्तु सॅ हुनक विरुद्ध षड़यंत्र मे भागीदार बनै छी हम! हे विश्वनाथ! सहोदर सॅ द्रोह करैत छी हम! भस्मासुर बनैत छी हम!’
कृष्णाक वज्र सनक कठोर वाणी सॅ सहमि गेलाह इंद्रपति। किछु बजै ले उद्यत भेलाह मुदा दाइजी ओतऽ से जा चुकल छलीह।
औंठी बेचि के किछु मासक व्यवस्था तऽ कऽ लेलनि इंद्रपति मुदा ओहि दिनक बाद कृष्णा सॅ नजरि नहि मिला सकलाह। ओइ गरिमामयी व्यक्तित्वक समक्ष एक विचित्र कदहीनताक आभास होनि। साक्षात्कार होइतहिं कतरा के हटि जाथि।
किछु मासक बाद फेर वएह समस्या ठाढ़ भऽ गेलनि। अर्थाभाव मे कर्ज- पैंचक सहारा लियऽ पड़लनि। कर्ज चुकेबाक सामर्थ्य तऽ छलनि नहि, परिणाम ई भेलनि जे लेनदार सभक तकादा सॅ त्रस्त रहऽ लगलाह। हारि दारि के मीरघाटक गली के शरण लेलनि इंद्रपति। महमूरगंजक विशाल बंगलाक किराया देबाक सामर्थ्य नहि रहलनि आब। मुदा लेनदार सभ ओत्तहु पहुंचि जानि।
एक एक कऽ के कृष्णा दाइक तीन टा औंठी आओर नवरत्नक हार बिका गेलनि। बड़ प्रयास केलनि इंद्रपति मुदा अंततः मोकदमा हारिए गेलाह। पिताक संपत्ति मे तहिया धरि पुत्रीक भाग छलैहे नहि तऽ हिस्सा कोना भेटितियनि? इंद्रपति झा ठका गेल छलाह। वकील हुनका नीक जेकाँ मुड़ि लेने छलनि, से तखन बुझलखिन जखन चिड़ैया खेत चुगि चुकल छलनि। सासुरक प्रसादात् जे सुख संपदा स्वतः प्राप्त छलनि आओर दिनानुदिन वृद्धिमान होइतनि से मिथ्याभिमान मे त्यागि आएल छलाह। अपन मिथ्या-दंभ आओर कुचक्री प्रवृत्तिक अपनहिं शिकार भऽ गेल छलाह। मोकदमाक हारल डिग्री लऽ के कोन मुंहे डेरा पर जैतथि, बहुक सामना करैक हिम्मत नहि रहलनि हुनका। एम्हर ओम्हर बदहवासी मे बौआए लगलाह।
कृष्णा एहि सभ सॅ बेखबरि, दू राति तक पतिक प्रतीक्षा केलनि। तेसर दिन नवाबजानक कोठा पर लोक पठओलनि, जतए जतए इंद्रपति अड्डा जमबैत छलाह सभ ठाम तकबौलनि मुदा कत्तहु पता नहि लगलनि। आब ओ आओर की करितथि? एतेक टा बनारस मे कतए कतए तकितथि? कहुना पंद्रह सोलह राति बितौलनि कृष्णा। असगर भय होनि। एक राति एकाएक किछु आहट बुझना गेलनि, लगलनि जेना केबाड़ लग केओ ठाढ़ अछि। अन्हार मे धुआ काया सॅ ओझेजी सन बुझि पड़लनि। चेहा के उठए लगलीह कि ओ आकृति गायब भऽ गेलैक। कनेक काल धरि डर सॅ सकदम्म भेल पड़ल रहलीह। पाछाँ साहस जुटा के गलीक मोड़ तक ताकि एलीह। कत्तहु केओ नहि छलैक। अज्ञात आशंका सॅ छाती धक धक करऽ लगलनि, झटकि के केबाड़ लगौलनि आओर पलंगक तऽर से गहना बला पेटी घीचि के खोललनि। आशंका निर्मूल नहि छलनि। एकटा सूतो नहि छोड़ने छलनि चोरबा! काठ मारि देलकनि कृष्णा के। आब की करतीह? कतऽ जेतीह? केकरा कहतीह? ठामहि बैसि गेलीह। समूचा शरीर थर-थर काँपए लगलनि। हे विश्वनाथ! हे विश्वनाथ! कहि के कुहरऽ लगलीह राजकन्या। मुदा ओइ निविड़ निशा मे के सुनितनि हुनक आर्तनाद!
जखन भोर भेलैक तऽ कहुना अपना के संयत कऽ के कृष्णा उठलीह। मोन के कड़ा केलनि आओर ससुर के पत्र लिखलनि जे आबि के अपन कुलक लाजक रक्षा करथु, नहि तऽ गंगाक अथाह जल मे शरण लेबाक अलावा कोनो आन रास्ता नहि छलनि, से सविनय लिखि पठौलखिन।
सातम दिन ससुर पहुंचि गेलखिन। खवासनीक माध्यम सॅ, केबाड़क अढ़ मे ठाढ़ भऽ के कृष्णा अपन दुख-गाथा सुनौलखिन ससुर के। सुनि के कानऽ लगलाह महीपति झा। धोतीक कोर सॅ नोर पोछि के किंचित अवरुद्ध कंठ सॅ पहिल बेर पुतहु कें संबोधित केलनि
‘राजकन्या के कहियौन धैर्य धारण करतीह, निसहाय नहि छथि ओ, अखन हम जीबैत छी। पत्र पढ़ितहिं एक्कहु क्षण नहि बिलमलहुं हम। तुरंत विदा भऽ गेलहुं। राजकन्या गाम चलथु, हम लऽ जाइए ले आएल छियनि। एतऽ आब की छैक? हमहीं कुपात्रक हाथ मे सौंपि देलियनि, तेकर प्रायश्चित तऽ हमरा लगबे ने करत’
अधिक नहि बाजि सकलाह महीपति झा, कंठ अवरुद्ध भऽ गेलनि।
ससुरक संग कृष्णा गाम आबि गेलीह। गाम तऽ आबि गेलीह मुदा दुर्भाग्यो संग लागल आबि गेलनि। पालकी सॅ पहिल पएर उतारैक संग सासुक कठोर स्वर कान मे पड़लनि।
‘जे अनलकन्हि ए से रखतनि! नहि नहि, हमर खंड मे नहि रहतीह, किन्नहु नहि! ओम्हर उतरबरिया दिस रखियौन्ह अपन पुतहु के!’
ससुरक गोंङिआएल स्वर तऽ नहि बुझना गेलनि कृृष्णा के, मुदा सासुक कठोर वचन सभ हृदय के भेदए लगलनि।
‘नहि! हम साफ कहि दै छी! ने भनसाघर जैतीह आ ने गोसाउनिक चिनवार पर पएर देतीह, हमरा एही समाज मे रहबाक अछि, अहाँ जेकाँ अलौकिक अव्यवहारिक हम नहि छी। काल्हि भऽ के लोक सभ सुनत तऽ अनर्थ भऽ जाएत, समूल बारल जाएब हमरा लोकनि!’
बड़ साहस कऽ के कृष्णा पालकी सॅ उतरलीह। आस्ते से सासुक समीप जा के जहिना प्रणाम करऽ लगलीह कि सासु पएर घींचि लेलखिन आओर व्यंग करैत बजलखिन
‘इएह! हम कहैत ने रही! देखलियै ने, जे कोना गोड़ लगलनि! छोटहाक बेटी किने! राजकुमारी भेने की हेतनि, हुंह’
कृष्णा चुपचाप सभटा सहि गेलीह। सहबाक तऽ आब अभ्यासे भऽ गेल छलनि। उतरबरिया खंड मे, भड़ारक कात मे एकटा कोठली बेरा देलखिन सासु। ओत्तहि कृष्णा चुपचाप पड़ल रहैत छलीह। दुनू साँझ, आश्रम मे सभक खेला पीलाक बाद, एकटा ब्राह्मणी थारी साँठि के ओही कोठली मे दऽ जाइत छलखिन्ह। सासु तऽ कहियो पुछारियो किएक करितथिन्ह, हॅ ससुर धरि नित्य केबाड़ लग सॅ, खवासनीक द्वारा कुशल-क्षेम पुछिते टा छलखिन, आश्वासन दैते टा छलखिन। हुनका पुतहुक दीन-हीन अवस्था देखि बड़ ग्लानि होनि। तैं सदिखन कोनो ने कोनो रूपें बोल-भरोस दैत रहैत छलखिन। स्त्री आओर समाजक भय सॅ, अइ सॅ बेसी किछु नहि कऽ सकैत छलाह महीपति झा। स्त्री कें तऽ सम्हारियो लितथि मुदा श्रोत्रियेतर कुलवधू के अपन आश्रम मे स्थान दऽ के जेहेन सामाजिक बहिष्कारक स्थिति उत्पन्न भेल जा रहल छलनि से ओ खूब नीक जेकाँ बुझि रहल छलाह। मोनहिं मोन भगवती के गोहरबथि जे कहुना इंद्रपति के सुबुद्धि होनि आओर ओ आबि के लऽ जाथि अपन स्त्री के। मुदा इंद्रपतिक तऽ कोनो अते-पता नहि छलनि।
चारूकात जोर-शोर सॅ सामाजिक गोलेशी भ रहल छलैक। कुलीनत्वक कर्णधार लोकनि मात्र एक सुअवसरक ताक मे छलाह, आओर से हुनका लोकनि के महीपतिक भातिजक उपनयन मे भेंटिए गेलनि। पूरा समाज मिलि के धऽ दबोचलक हुनका। सर्वसम्मति सॅ इएह तय भेल जे कालीगंजक राजकन्याक छाया सॅ दूषित आंगन मे केओ कौर नहि उठौताह। बिकौआ इंद्रपतिक छोटहा स्त्री के ई कुलीन समाज कथमपि स्वीकार नहि करतन्हि। यावत एकर परिमार्जन नहि करताह तावत ने केओ उपनयन मे जेतनि आओर ने एक कौर खेतनि। जमींदारीक धौंस नहि सहतनि समाज।
की करितथि घरबैया लोकनि? माथ पर करतेबता ठानल छलन्हि, हार माननहिं कुशल छलनि। हबर-हबर, गाम सॅ बाहर, सहदेबा पोखरिक महार पर एकटा एकचारी बनाओल गेल। केओ बुझए नहि, तैं रातिक अंतिम पहर मे, कृष्णा के ओहि निर्जन स्थान मे पहुंचाओल गेलनि। मात्र एक खबासनीक सहारे छोड़ि एलखिन घरबैया सभ।
कृष्णा के ने एक्को रत्ती भय भेलनि ने एक्को बुन्न नोर खसलनि। काष्ठवत् ठाढे़ रहि गेलीह ओहि पोखरिक महार पर। कनेक कालक बाद खबासिन घीचि के भीतर लऽ गेलनि आओर एकटा टुटलाही चौकी पर बैसा देलकनि। ओकरा अपनहिं डऽर पैसि गेल छलैक। खबासिन के भय से थर-थर कॅपैत देखि कृष्णा के जेना भक्क टुटलनि। उठि के जहिना केबाड़ लगबऽ लगलीह तऽ बुझना गेलनि जे पोखरिक कात मे केओ बंदूक लेने बैसल छैक। ससुर के चीन्हि गेलीह कृष्णा। एखनि धरि अपना के सम्हारने छलीह, मोन के कड़ा कऽ के सभ जब्त केने छलीह। मुदा अपन एकमात्र अविभावक के ओहनो परिस्थिति मे अडिग पाबि के स्वयं पर नियंत्रण नहि राखि सकलीह। पितातुल्य संरक्षकक दृढ़ संकल्प सॅ आश्वस्त होइत देरी एकाएक आर्तनाद कऽ उठलीह असहाय भऽ के। चीत्कार करैत भूमि पर ओंघड़ाए लगलीह राजकन्या। कुहरि कुहरि के कानए लगलीह। अचेत भऽ गेलीह।
अपन कुलक लाज के ओहेन निर्जन मे एकसरि छोड़ि के नहि जा सकल छलाह महीपति झा। जेकर आगाँ पाछाँ दर्जनो नौकर-चाकर लागल रहैत छलैक तेकरा एना बियाबान मे नहि त्यागि सकल छलाह। संरक्षणक वचन दऽ के अनने छलखिन बनारस से। से कोना बिसरि जैतथि? नहि गेलाह महीपति। ओत्तहि पोखरिक कात मे बैसि गेलाह आओर भोर हेबाक प्रतीक्षा करऽ लगलाह। मुदा कनेक्के कालक बाद पुतहुक चीत्कार कान मे पड़लनि। दौड़लाह कुटिया दिस मुदा केबाड़ लग आबि, लकथका के ठाढ़ भऽ गेलाह। खबासिनक माध्यम सॅ जेना भेलनि से उपचार करबौलखिन्ह आओर मोनहि मोन एकटा दृढ़ संकल्प लेलनि। बजलाह
‘कोन मुंहे हम राजकन्या के कहियनि कि अधीर नहि होथि, के स्थिर रहि सकैत अछि एहेन विकट परिस्थिति मे! एतेक सहनशीलता तऽ साक्षात जनकनंदिनीयो के नहि रहल हेतनि संभवतः! हमर बौआसिन सन सती लक्ष्मी के हएत? हिनका सन कुलीन के हएत? जे एत्तेक सहलनि चुप्प मुंहे, आओर एखनहुं सहिए रहल छथि। जे नहि चिन्हलकनि हिनका से महा अभागल अछि! महा अभागल! मुदा आब आओर नहि! बहुत आस देखलहुं हम अपन कुपात्र संतानक! आब आओर नहि’
भुरुकुआ उगला पर महीपति गाम पर घुरि एलाह । आंगन दिस गीत-नाद भऽ रहल छलैक। बमभड़ार नोतल जा रहल छलैक। हुनका केओ नहि देखलकनि। सोझे कचहरी मे जा के कागज कलम लऽ के बैसि गेलाह। बेश विस्तार सॅ राजा यशनंदन सिंह के सभ हाल लिखि पठौलखिन। बेर-बेर अपन कुपुत्रक अपराध ले क्षमा मॅगैत अपन असमर्थता व्यक्त केलखिन महीपति। एहेन सामाजिक परिस्थिति मे राजकन्याक निरादर आओर अपन मजबूरीक गाथा लिखि पठौलखिन। पतिक परोक्ष मे ज्येष्ठ भ्राताक कर्तव्य स्मरण दियौलखिन। अंत मे सविनय निवेदन केलखिन जे अविलंब बहिन के लऽ जाथु। हुनकर कोन दोष?
कएक बेर पत्र के पढ़ि गेलाह महीपति झा। कतहु किछु अनर्गल तऽ ने लिखा गेलनि, से गौर सॅ देख गेलाह। पुतहुक दुख सॅ अति क्लेशित छलाह ओ। दृढ़ निश्चय कऽ लेने छलाह जे एकर पटाक्षेप कइए के दम लेताह। बड़ी काल धरि मोनहि मोन विचार केलनि। तखन आश्वस्त भऽ के पत्र के डाक-पेटी मे खसा एलाह।
कालीगंज मे जतबे उमंग सॅ होलीक आयोजन होइत छलैक ततबए उछाह सॅ चैतक आयोजन सेहो होइत छलैक। एक मास सॅ होली गबै के जे होड़ मचैत छलैक से पूर्णिमाक बादो समाप्त नहि होइत छलैक। पूर्णिमाक राति मे होलिका-दहन कऽ के लोक सभ भस्म सॅ क्रीड़ा करैत, आओर चैताबर गबैत अपन अपन टोल पर घुरि तऽ अबैत छल मुदा फेर प्रातहिं सॅ पूरा एक मास धरि चैतक आनन्द मनबैत रहैत छल। भोरे-भोर चैतावरहिं सॅ जगैत छल किलाक लोक वेद।
कतेक दिन पर अजुका चैतावर बड़ सोहाओन लगलनि राजा यशनंदन के। ओछाओन छोड़ि के खिड़की लग ठाढ़ भऽ गेलाह आओर सुनऽ लगलाह।
‘नित उठि बसिया बजाबै हो रामा, मोहन रसिया’
मोन मे ठीके बसिया बाजि उठलनि। मुसकि उठलाह यशनंदन। साते दिवस पूर्व, फागु पूर्णिमाक दिन, रानी दुर्गेश्वरी देवी पहिल पुत्र-रत्न के जन्म देने छलीह। चारूकात उत्सवक तैयारी चलि रहल छलैक। आओर आइ राजाक छोट बहिन, तीन बरखक कठिन वनवास सॅ घुरि के वापिस आबि रहल छलखिन। पाँचे दिनक बाद नवजात राजकुँवरक नामकरण हेबाक छलैक। एहेन शुभ अवसर पर छोटकी बहिनक उपस्थिति लेल यशनंदन बेश व्यग्र छलाह। तैं महीपतिक पत्र पबैत देरी एक्को क्षण विलंब नहि केलनि। लगले बडका ओझाजी के पठा देने छलखिन।
जहिना रनिवासक फाटक पर मोटरकार आबि के रुकलै, आओर छोटकी दाइजी उतरलीह कि हवेलीक लोक सभक ठट्ठ लागि गेल हुनका देखैक लेल। मुदा की देखितए लोक सभ? ई कि छोटकी दाइजी छलीह? कतऽ गेलनि ओ रूप, ओ दक दक करैत काया! एकदम झामर लगैत छलीह छोटकी दाइजी, दुब्बरहुं सं दुब्बर! कान्तिहीन शरीर पर एक्कहु टा आभूषण नहि। एकटा मामूली जूटक नूआ पहिरने छोटकी दाइजी उतरल छलीह। जेठ बहिन लपकि के गऽर सॅ लगा लेलखिन। दुनू जेठ भाइ बहिन के गोड़ लागि के कानऽ लगलीह कृष्णा। लोक सभ दाइजी के विह्वल भेलि देखि रहल छलनि। तैं दुनू भाइ बहिन पकड़ि के भीतर लेने गेलखिन।
गोदावरी दाइक मोन बड़ प्रसन्न भेल छलनि छोट बहिन के देखि के। सोचने छलीह जे आब दुनू बहिन मिलि के खूब आनंद करब भतिजक नामकरण मे, खूब गीत-नाद गाएब, मुदा कृष्णा तऽ कोना दन भऽ गेल छलखिन। ने ओ बजनाइ, ने ओ हॅसी टट्ठा, ने ओ नित्य नव चिरौरी करबाक हिसक। कृष्णा तऽ किछु बजितहि नहि छलीह। एकदम चुप्प भ गेल छलीह। एहेन स्थिति मे नामकरण केर कोनो तैयारी कोना करितथि गोदावरी दाइ? संध्याकाल जखन राजा साहेब भेंट करै ले एलखिन तऽ गोदावरी एहि विषय मे भाइ लग चर्चा केलनि। बजलीह
‘कृष्णा तऽ किछु बजितहि नहि छथि, हुनका देखि के बड़ चिंता होइत अछि’
अपन विश्वस्त चर सॅ बहुत किछु सुनि चुकल छलाह राजा साहेब। महीपति झाक पत्र द्वारा बनारस सॅ गाम धरिक संपूर्ण गाथा सॅ अवगत छलाह। बहिनक मनोदशाक अंदाज छलनि हुनका। दुखी भऽ के बजलाह
‘जतेक ओ सहलनि ततेक केओ नहि सहने हएत, मानसिक आघात सॅ सहमि गेल छथि,’
‘हँ, से तऽ सत्ते कहैत छी, मुदा दुख तऽ बॅटनहिं से कम हेतनि ने, पुछति रहैत छियनि मुदा हूं हां के अलावा किछु बजितहि नहि छथि’
‘आन दिस मोन जेतनि तखनहिं किछु सहज हेतीह आस्ते आस्ते, दोसर-दोसर गप करियौन ने हुनका से’ राजा सुझाव देलखिन
‘से तऽ अखन नामकरणहिं केर नव प्रसंग छैक, मुदा जेना कृष्णा के कोनो उत्साहे नहि देखैत छियनि’
यशनंदन के छोट बहिनक पहिलुक स्वभाव मोन पड़ि गेलनि। मुसकि के बजलाह
‘हँ पहिलुका कृष्णा रहितथि तऽ अखन धरि हमरा ईनाम-निछावर ले तंग-तंग कऽ देने रहितथि’
‘हँ, सएह ने, जै भातिज केर जन्म लेल सामा-चकेबा मे एक सै आठ चुगला डाहै केर कबुला केने छलीह, सएह भातिज के एक्को बेर कोरो मे लै केर स्पृहा नहि देखैत छियनि’ गोदावरी बजलीह
‘गहना-कपड़ाक गप्प करियौन ने बहिनदाइ’ यशनंदन के फुरेलनि ‘ततेक सौख छनि गहना-कपड़ाक जे अइ विषय पर चुप नहि रहि सकतीह’
गोदावरी उदास भऽ गेलीह, बजलीह
‘कोन मुंह सॅ गहना-कपड़ा केर गप्प करू, कृष्णाक विवाह मे माँ अपनहिं सॅ तीन पसेरी सोन निकलवा के देने छलखिन तोशखाना सॅ, रंग रंग के गहना बनि के आएल छलनि, से आइ कृष्णा के सोनक एकटा सूत नहि रहए देलखिन छोटका ओझाजी’ कना गेलनि गोदावरी दाइ के। यशनंदनहुं के बड़ ग्लानिक अनुभव भेलनि। हुनका गहनाक प्रसंगे नहि खोलबाक चाहैत छलनि। आस्ते से बहिन के कहलखिन
‘जे चल गेलनि तेकर पूर्ति तऽ नहि भऽ सकतनि मुदा हमर बहिन निराभरण नहि रहतीह। हम एखनहि तोशखाना सॅ निकलवा दैत छियनि अहाँक भाउजि के कहि के’ फेर किछु स्मरण कऽ के बहिन के कहलखिन
‘अहीं के चलऽ पड़त बहिनदाइ, अहाँक भाउजि तऽ अखन तोशखाना मे जैतीह नहि’
तखनहिं दुनू भाइ बहिन तोशखाना खोललन्हि। सातो रंगक सात टा बनारसी-पटोर आओर सभ अंगक लेल आभूषण निकालल गेलनि कृष्णाक लेल। बहिनक प्रति भाइक आवेश देखि के गोदावरी गहबरित भऽ गेलीह। बजलीह
‘सएह, हम सोचैत छलहुं जे कृष्णा नहि पहिरतीह किछु तऽ हमहीं जेठ भऽ के कोना पहिर ओढ़ि के बैसब नामकरण मे, ई बिसरि गेल छलहुं जे भगवती हमरा लोकनि के अहाँक सन भाइ देने छथि। माँ चलि गेलीह ताहि सॅ की?’
दुनू हाथ सॅ भाइक माथ हॅसोथए लगलीह गोदावरी। यशनंदनहुंक आँखि डबडबा गेलनि।
नामकरण काल मे सभ किछु पहिरा ओढ़ा के अपनहिं लग बेसौने रहलखिन गोदावरी। मुदा कृष्णाक लेखए धनि सन। माटिक मूर्ति जेकाँ बैसल रहलीह, टुकुर टुकुर तकैत। खूब धूमधाम सॅ नामकरण संस्कार संपन्न भेलैक। कुँवरक नाम राखल गे़लनि ‘कालिकानंदन’। जखन दूर्वाक्षतक बेर भेलैक तऽ चिक-परदाक अढ़ सॅ गोदावरी दाइ राजा साहेब के सुना के भाउजि के कहलखिन
‘पहिने हमरा लोकनिक ईनाम निकालू, भातिजक जन्मक नेग!’
दुर्गेश्वरी मुसकि उठलीह मुदा किछु बजलीह नहि।
‘अइ बेर मे चुप्प बैसने नहि हएत, निकालू हमरा लोकनिक ईनाम’
यशनंदन के बड़ नीक लगलनि, बिहुंसि के बजलाह
‘आदेश दियौ ने बहिनदाइ, सभटा तऽ अहींक थिक’
आइ बड़ प्रसन्न छलीह गोदावरी। दूटा भतीजीक बाद पहिल भातिज भेल छलनि। बापक वंश बढ़ल छलनि। बजलीह
‘की यै कृष्णा? की लेब अहाँ? हम तऽ सतलड़ी हार लेब!’
प्रमुदित मोन सॅ दुर्गेश्वरी अपन गऽर सॅ सतलड़ी हार खोलि के ननदि के पहिरा देलखिन। यशनंदन हँसए लगलाह। कृष्णा के पुछलखिन
‘अहूँ किछु बाजू ने कृष्णा, अहाँ की लेब?’
कृष्णा बजलीह तऽ किछु नहि मुदा कनेक मुसकि उठलीह, से देखि यशनंदन बड़ आशान्वित भेलाह। छोटकी बहिनक प्रति वात्सल्य उमड़ि एलनि। फेर पुछलखिन
‘बहिनदाइ सॅ नीक वस्तु मॅगबाक चाही अहाँके! अहाँ तऽ सभ सॅ छोट छी, सभ से बेसी अधिकार तऽ अहींक अछि। बाजू की लेब?
कृष्णा मुसकैत रहलीह मुदा किछु बजलीह नहि। दुर्गेश्वरी आस्ते सॅ पुछलखिन
‘राजमाता साहेब बला, नवरत्नक बाजूबंद लेब छोटकी दाइजी? ओ तऽ अहाँके बड़ पसिन्न छल।’
मुदा छोटकी दाइजी किछु उत्तर नहि देलखिन। मुसकैत तकैत रहि गेलीह राजा साहेब दिस। एक टक्क तकैत रहि गेलीह।
कनेक निरास भऽ गेलाह राजा, बजलाह
‘बुझि पड़ैए जेना अखन नहि बजतीह हमर बहिन, बाद मे झगड़ा कऽ के लेतीह, कोनो बात नहि, बाँकी रहल अहाँक इनाम’
दुर्वाक्षत लऽ के ठाढ़ भऽ गेलाह राजा साहेब। कुटुंब लोकनि सेहो ठाढ़ भऽ गेलाह। राजपंडित दुर्वाक्षतक मंत्र पढ़ऽ लगलाह।
ओइ दिनक बाद छोटकी दाइजी कहुखन के जेठ बहिन लग जा के बैसऽ लगलीह। आस्ते आस्ते रनिवासक देखरेख मे गोदावरीक हाथो बॅटबए लगलीह। पूर्णतया सामान्य तऽ नहि भेलीह मुदा आब पहिने जेकाँ चुप्प नहि रहथि। एक दिन जखन भातिज के कोरा मे लऽ के खेलबए लगलीह, आओर नहुंए नहुंए खेलौना गाबऽ लगलीह, तऽ दुर्गेश्वरी दौड़ि के गोदावरी के बजा अनलखिन। दुनू गोटए बड़ी काल धरि छोटकी दाइजी के तन्मय भऽ के गीत गबैत देखैत रहलीह।
कहबी छैक जे ‘समय सभटा घाव भरि दै छैक’ मुदा छोटकी दाइजीक मोनक घाव कोना भरितनि? ओझाजीक कोनो समाचार कत्तहु सॅ नहि भेट रहल छलनि। यद्यपि ससुरक पत्र नियमित रूप सॅ अबैत छलनि आओर बड़ हुलसि के दाइजी पत्र खोलैत छलीह मुदा जै लेल खोलैत छलीह से नहि पाबि के उदास भऽ जाइत छलीह। सभ पत्र मे कुशलादिक पुछारी करैत छलखिन महीपति। दाइजी नियमित रूप सॅ उत्तरो दै छलखिन। ओ नीक जेकाँ बुझैत छलीह जे ससुरक विशेष जिज्ञासा की छनि। दुनू गोटाक एक्कहि जिज्ञासा, मुदा केओ एक दोसर पर व्यक्त नहि कऽ पबैत रहथि।
जेल भऽ गेल छलनि इंद्रपति के। ओतेक रास सोना-चानी केर गहनाक संग बनारसक असी घाट पर पकड़ा गेल छलाह। पुलिस पकड़ि के कोतवाली लऽ गेलनि। पूछताछ करऽ लगलनि। की बजितथि इंद्रपति झा जे कतऽ से अनलेन ओतेक सोन? गोङिआए लगलाह। मारि पीट तऽ जे भेलनि से भेलनि, सजाए भऽ गेलनि तीन बरखक। दुर्गति भऽ गेलनि। जखन छुटलाह तऽ किछु दिन तक फेर बौआइते रहलाह। कोन मुंह लऽ के घऽर जैतथि। मुदा जखन तहू सॅ थाकि गेलाह तऽ हारल जुआरी जेकाँ गाम पर घुरि एलाह।
गाम पर एक्कहु दिन नहि रखलखिन बाप। सोझे कालीगंज लेने गेलखिन। राजा साहेब लग उपस्थित भेलाह दुनू गोटए। बहिनौ के देखैत देरी राजा साहेब क्रोध सॅ थर थर काँपए लगलाह, भ्रुकुटी चढ़ि गेलनि। मुदा अपना के जब्त केलनि। महीपति झा कल जोड़ि के निवेदन करऽ लगलखिन
‘अपनेक अपराधी के जै दिन अपनेक समक्ष ठाढ़ करब तही दिन अप्पन मुंह देखाएब, सएह सप्पत खेने छलहुं श्रीमान! तैं आइ धरि उपस्थित नहि भेल छलहुं। अपनेक अपराधी छथि इंद्रपति, आब अपने जे सजाए दिएन्हि। हमरा तऽ कतहु माथ उठा के चलैक जोग नहि छोड़लनि ई। ओ तऽ हमर सती-लक्ष्मी बौआसिनक जीवन केर प्रश्न नहि रहितए तऽ हम हिनका गाम पर किन्नहु नहि टपऽ देतियन्हि! आब अपनेक जे आदेश हो, माफ करियेन वा दंड दिएन्ह’
बजैत बजैत हाँफऽ लगलाह महीपति झा। राजाक आदेश पर जल हाजिर कएल गेल। जल पीबि के महीपति झा कनेक संयत भेलाह। राजा के महीपति झाक प्रति बड़ आदर छलनि। हुनकहि दुआरे आइ कृष्णा सकुशल छलीह नहि तऽ कोनो कसर कहाँ छोड़ने छलाह छोटका ओझाजी। मुदा छोटका ओझाजी कोनो तरहें क्षमाक पात्र नहि छलाह। इच्छा तऽ भेलनि जे सिपाहीक द्वारा तखनहि गरदनिया दऽ के निकालि दियनि मुदा बहिनक स्मरण कऽ के शांत रहि गेलाह। भरल दरबार मे बेसी किछु बाजब उचित नहि लगलनि। मुदा तैयो अपन रुष्टता नुका नहि पौलाह राजा यशनंदन सिंह। बजलाह
‘हिनका माफ कोना कऽ सकैत छियन्हि हम! हिनका माफ कऽ के तऽ हम अपनहि नजरि मे खसि पड़ब! आइ यदि हमर बहिनक प्रश्न नहि रहितए तऽ साक्षात् महाकालहु नहि बचा सकितथिन हिनका। दंड तऽ भगवती देबे केलखिन। कोनो दुर्दशा बाँकी रहलनि? आबहु होश मे आबथु। मुदा खबरदार! हमर लाचारीक कोनो फायदा उठेबाक दुस्साहस नहि करथु से नीक जेकाँ बुझा दियौन महीपति बाबू। इंद्रपति झा हमर आगाँ नहि आबथि सएह नीक, नहि तऽ किछु अनर्थ भऽ जाएत से कहि दैछी! लऽ जैयौन बासा पर, लऽ जैयौन एतऽ से!’
भातिज के दुलार मलार कऽ के छोटकी दाइजी अपन हवेली दिस जाइए रहल छलीह कि टेनाक माए हुलसैत आबि के कहलकनि
‘दाइजी यै दाइजी! छोटका ओझाजी आबि गेला यै दाइजी! एखनहि हम देखलियनि हुनका अहाँक ससुरक संग दरबार - - -!’
मुंहक बात मुंहे मे रहि गेलैक टेना माए के। दाइजी ठामहिं अचेत भऽ के खसि पड़लीह ओसाराक पर। दाँती लागि गेलनि। लोक सभ उठा पुठा के रानी साहेबक पलंग पर सुता देलकनि। दुर्गेश्वरी अपनहिं सॅ पंखा डोलबए लगलखिन। जलक छींट दऽ के होश मे आनल गेलनि, मुदा आँखि खोलितहिं फेर दाँती लागि गेलनि। बड़ कठिने दाँती छोड़ाओल तऽ गेलनि मुदा रहि रहि के अचेत भऽ जाति छलीह। थोड़ेक काल धरि संज्ञाहीन जेकाँ पड़ल रहलीह दाइजी, तकर बाद हिचुकि हिचुकि के कानऽ लगलीह। विह्वल भऽ के रोदन करए लगलीह। कतबो लोक बुझबनि, कोनो असरे नहि। रुदन बढ़िते गेलनि। नाक-मुंह सॅ गाजु पोटा जाए लगलनि। केओ दौड़ि के वैद्यराज के बजौने एलखिन। वैद्य जीक औषधि सॅ कनेक कालक बाद स्थिति मे सुधार भेलनि आओर कानब बाजब बंद भऽ गेलनि। मुदा नींद नहि भेलनि। तंद्रावस्था मे पड़ल बड़बडा़इत रहलीह।
दाइजीक अस्वस्थताक समाचार पाबि यशनंदन दरबार सॅ सोझे हवेली पहुंचि गेलाह आओर बहिनक सिरहाना मे बैसि के हुनक माथ पर आस्ते आस्ते हाथ फेरए लगलाह। बहिन के तंद्रावस्था सॅ जगाएब उचित नहि बुझि पड़लनि, तैं आँखिक संकेत द्वारा दुर्गेश्वरी सॅ समाचार बुझबाक जिज्ञासा केलनि। मुदा अइ से पहिने कि दुर्गेश्वरी किछु उत्तर दितथिन, कृष्णाक तंद्रा टुटि गेलनि। विह्वल भऽ के चारू कात ताकऽ लगलीह कृष्णा। जहिना जेठ भाइ पर नजरि गेलनि कि एक्कहि बेर कोंड़ फाटि गेलनि। भाइक हाथ गसिया के धऽ लेलनि आओर कुहरि कुहरि के कानऽ लगलीह। बेर बेर भाइक आँखि मे ताकथि जेना किछु पुछि रहल होइथिन। कोनो उत्तर नहि पाबि फेर अधीर भऽ जाथि। कहबी छैक ‘सोदरक हाल सोदरहि जानए’ से एकाएक बहिनक मनोव्यथा बुझि गेलाह यशनंदन। बजलाह
‘केओ किच्छु नहि कहलकनि ओझाजी के! एकदम ठीक छथि ओझाजी! एकदम ठीक छथि ओझाजी!’
कृष्णा नेना जेकाँ हिचुकए लगलीह, भाइक निहोरा करऽ लगलीह
‘भाइजी यौ भाइजी! हिनका माफ कऽ दियौन्ह यौ! हिनकर बिनु हम कोना रहबै यौ भाइजी!
इंद्रपति झा के कहियो माफ नहि कऽ सकैत छलाह राजा यशनंदन। बड़ दुख देने छलखिन हुनक माए के। बड़ अपमानित केने छलखिन हुनक छोट बहिन केे। माफ करबाक तऽ प्रश्ने नहि छलैक। मुदा राजाक बहिन के बकौर लागि गेल छलनि।
‘हिनका जीवनदान दियौन यौ भाइजी, हमरा जीवनदान दियऽ यौ भाइजी, फेर कहियो किछु नहि माँगब हम!’
कनैक कनैत भातिज पर नजरि गेलनि दाइजीक। बच्चा काँच नींद सॅ जागि के हुनकहि दिस टुकुर टुकुर ताकि रहल छलनि। लपकि के कोर मे उठा लेलनि भातिज के आओर आर्तनाद कऽ उठलीह
‘एकर जन्मक इएह ईनाम दियऽ यौ भाइजी, हम नहि नौलक्खा हार लेब यौ भाइजी! बस हिनका जीवनदान दियौन यौ!!!
एतेक काल धरि दुर्गेश्वरी किछु नहि बाजल छलीह मुदा छोट ननदि के एना कलपैत कुहरैत देखि के नहि रहल गेलनि। अवरुद्ध कंठ सॅ बाजि उठलीह
‘माफ कऽ दियौन ने! बहिन के देखू जे कोना लारू बातू भेल जा रहल छथि। बहिन के सम्हारू पहिने! बहिने नहि बचतीह यदि ओझाजी के किछु हेतनि तऽ!’
सावित्री सन बहिनक आगू हारि गेलाह यशनंदन। दुनू हाथ सॅ बहिनक हाथ पकड़ि लेलनि। बजलाह
‘सत्ते कहलनि महीपति झा, सत्ते अहाँ सती लक्ष्मी छी!’
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