Thursday, September 1, 2016

संगीत-भास्कर, संगीत-सुधाकर
राजकुमार श्यामानन्द सिंह
1916
जन्म शताब्दी के शुभ अवसर पर प्रकाशित आलेख 



दैया कहाँ गए वो दिन
चंपानगर का वह पुश्तैनी महल आज भी विद्यमान है, जिसमें वे पले बढ़े, जीवन को भरपूर जिया और सतहत्तरवें वर्ष में पंचतत्व में विलीन हो गए। लेकिन सप्तसुरों की लहरी में लिपटी लहराती हवाओं के बीच प्रतिष्ठित वाग्देवी का वह अनूठा मंदिर अब नहीं रहा। प्रातःकाल की वह संगीत साधना, दोपहर का वह स्वर-विलास और देर रात तक चलने वाला रागिनियों का वह अनुपम श्रृंगार नहीं रहा। बस वहाँ के संगीतमय माहौल की यादें शेष हैं।
यादें अनगिनत हैं, और बातें तो इतनी हैं कि सैकड़ों पन्नों में भी ना समायें। परिवार में वो सबसे बड़े, और मैं सबसे छोटा, व्यक्तित्व में, पद में, गुण में। फिर भी जैसा मैंने उन्हें जाना, पाया, और अनुभूत किया, वह अपने आप में एक रुचिकर संस्मरणात्मक पुस्तक का रूप ले लेगी इसमें कोई संदेह नहीं।
1963-640 की बात है। मैं सात-आठ वर्ष का बालक था। उन दिनों दुर्गापूजा के महापर्व पर चंपानगर में गवैयों-बजवैयों का जमघट होता था। नवरतन पैलेस के दरबार हॉल में, लगभग एक पखवाड़े तक सुबह-शाम संगीत की महफिल सजती थी।
समूचे हॉल में दुधिया चाँदनी बिछाई जाती थी, और हॉल के बीचोंबीच एक मखमली कालीन के उपर एक विशाल मसनद लगाया जाता था। महफिल के समय मेरे बड़े काका, राजकुमार श्यामानंद सिंह, सहज शालीनता के साथ मसनद से उठंग कर बैठते थे, और उनके अगल-बगल मेरे पिताजी समेत अन्य राजकुमारों के बैठने की जगह होती थी। पीछे की ओर सभी रिश्तेदार, हमलोग, अन्य सभासद और श्रोतागण बैठते थे। हॉल के पूर्वी तरफ, एक दूसरे गलीचे पर अपने साजोसमान और साजिंदो के साथ मुख्य कलाकार बैठकर अपना फन प्रस्तुत करते थे। उत्तरी ओर कलाकारों की जमात थी, और दक्षिणी ओर के दरवाजों पर लटके हुए चिक और पर्दो के पीछे राजघराने की स्त्रिायाँ बैठकर संगीत का आनंद लेती थी। झाड़ फानूसों से छनकर आती हुई बिजली की रोशनी से संपूर्ण कक्ष एक दूधिया आलोक में नहाया हुआ लगता था। चार बड़े-बड़े सीलिंग पंखे वातावरण को शीतलता प्रदान करते थे। ऐसे शांत स्निग्ध वातावरण का निर्माण होता था कि मानो महाश्वेता भगवती सरस्वती का साक्षात आविर्भाव हुआ हो।
नियत समय पर काकाजी अपना आसन ग्रहण करते और पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार किसी कलाकार के गायन अथवा वादन से संगीत-सभा आरंभ होती थी।
       जब कभी किसी कलाकार द्वारा बेहतरीन प्रस्तुति की जाती तो संपूर्ण सभागार संगीत से झूम उठता था, और एक अजीब समा बंध जाती थी। लोग इस तरह मंत्रामुग्ध होकर संगीत का आनंद लेते थे, कि प्रस्तुति के समापन पर प्रतीत होता था जैसे समय एकाएक रुक गया हो। सभा स्तब्ध हो गई हो। चारों ओर निशब्द-नीरव शांति के बीच केवल पंखों का घर्र-घर्र ही सुनाई देता था।
काकाजी धीरे से शाबाशी देते, कोई बात छेड़ते अथवा केवल मुस्कराकर रह जाते थे। फिर अगली प्रस्तुति होती थी, फिर वही संगीत के सागर में डूबना-उतराना, और फिर वही चुप्पी और पंखों का घर्र-घर्र।
संगीत महफिलों के अपने कायदे कानून तो थे ही, राज दरबारों के तौर तरीकों के साथ मिलकर एक अत्यंत अनुशासित माहौल बन जाता था। जब तक कोई प्रस्तुति चलती रहती तब तक किसी की क्या मजाल कि चूँ शब्द भी निकाल सके। बैठने की मुद्रा का परिवर्तन करना भी अपेक्षित ना था। अगर कोई ऐसा करता तो राजकुमारों की एक नजर ही उन्हें सहमा कर रख देती। किसी गायन अथवा वादन के बीच सभा से उठकर जाना किसी जघन्य अपराध से कम ना था। ऐसा करने से प्रस्तुतिकर्ता  और दरबार दोनों का अनादर समझा जाता था।
विजयादशमी और लक्ष्मीपूजा की संध्या बैठकों में स्वयं काकाजी प्रस्तुतिकर्ता की कालीन पर विराजते और उनके मसनद को हमलोग हथिया लेते थे। इस अवसर पर विशेष भीड़-भाड़ होती थी, और चिक के पीछे बैठने वाला स्थान भी ठसाठस भर जाता था। जो लोग शास्त्रीय संगीत से अधिक रुचि न भी रखते थे वे भी काकाजी के मनोहारी संगीत का रसास्वादन करने के लिए खिंचे चले आते थे। काकाजी हारमोनियम बजाकर गाया करते थे और उनके पीछे उनके दो शागिर्द विशालकाय तानपुरों से सुर छेड़ा करते थे। काकाजी के प्रिय तबला वादक ऋषिकांत सिंह तबले पर संगत करते थे। गाने की प्रस्तुति के बीच जब किसी तान की अभिव्यक्ति के क्रम में काकाजी अपने दायें हाथ को हवा में लहराते थे तो उनकी कानी अंगुली पर धारण की हुई हीरे की अंगुठी से ऐसी धनुषाकार रेखा खिंच जाती थी जैसे विद्युत लता हो। वह दृश्य आज भी मेरे दृष्टिपटल पर इस तरह अंकित है कि याद आते ही मुझे रोमांचित कर देता है।
       सभा के अंत में, राजमाता द्वारा एक विशेष भजन सुनाने के आग्रह पर नतमस्तक होकर काकाजी द्वारा 'बन ठन कर आयो रे गोपी' गाना, और सभी श्रोताओं का अभिभूत होकर का झूमना मैं कभी भूल नहीं सकता।
उन दिनों 'बेणी माधव' नाम के एक विशेष कलाकार थे जिनकी प्रस्तुति सुनने के लिए लगभग उतनी ही भीड़ होती थी जितनी काकाजी के लिए। ऐसे अवसरों पर पूरा का पूरा रनिवास उमड़कर पर्दो के पीछे बैठ जाता था। पायल और नुपुरों की ध्वनि से दरबार का ध्यान आकृष्ट ना हो इसके लिए राजघरानें की औरतें दरबार की तरफ कदम बढ़ाने से पहले अपनी पायलें और कड़े खोलकर आँचल में बाँध लिया करती थी। फिर भी औरतें तो आखिर औरतें ठहरीं। बहुत देर तक अपने को संयत न रख पाती थीं, और उनकी फुसफुसाहत कभी-कभी चिक-परदों से छनकर काकाजी के कानों तक पहुँच ही जाती थी। वे एक बार कड़ी नजर से परदों की तरफ देखते और बस, उनकी एक नजर ही काम कर जाती थी। पुनः नियंत्रित होकर औरतें बैठ जातीं और बेणी माधव के गाने का आनंद लेने लगती थीं। 
काकाजी के दरबार में दो तीन गवैये स्थाई तौर पर रहते थे। उनमें उस्ताद अल्ताफ हुसैन खाँ, उस्ताद बाचू खाँ साहेब और पं0 सूर्यनारायण सिंह प्रमुख थे। अल्ताफ हुसैन खां की यादें काफी धूमिल सी रह गई हैं, परंतु बाचू खाँ जिन्हें हम 'बच्चू खाँ' या 'ओस्ताद' कहा करते थे, मुझे अच्छी तरह याद हैं। वे काकाजी को तो संगीत का तालीम देते ही थे, मेरी बड़ी बहनों को भी गाना सिखाया करते थे। वे अक्सर शाम के चार बजे मेरी बहनों को गाना सिखाने के लिए गाना-कमरे के एक कोने में हारमोनियम लेकर बैठ जाते। वाणी दीदी,  वंदना दीदी, उर्मिला दीदी, और सरोज दीदी उन्हें घेरकर बैठ जाती थीं और नए नए बंदिश सीखा करती थीं। वाणी दीदी और वंदना दीदी खूब मन लगाकर सीखती थीं। उर्मिला दीदी थोड़ी चंचला थीं, अक्सर ओस्ताद उनसे कहते
'ध्यान से सुनो फिर गाओ, तुम मुझसे आगे-आगे ही गाने लगती हो।'
सरोज दीदी इतनी धीमी आवाज में गातीं कि ओस्ताद सुन ही नहीं पाते थे। वे सबको चुप करवा देते और सरोज दीदी से कहते थे
'हाँ बेटा' अब गाओ, सुनू तो अब, क्या गा रही हो।'
ओस्ताद खुद एक पतले, दुबले और कमजोर से दिखने वाले इंसान थे। मैंने सुना है कि छोटी सी आवाज थी उनकी, लेकिन क्या गाते थे, दिल पर चोट करते थे।
सरोज दीदी के पीछे-पीछे उनकी संध्या तालीम में मैं भी जा बैठता था।
'मोरी बैयाँ ना पकड़ो गिरिधारी श्याम, मैं तो विनती करत गई हारी श्याम'  जब वे दीदी लोगों को सीखा रहे थे, तब मैंने भी वह बंदिश चुपके से उठा ली थी। इस तरह से ओस्ताद मेरे भी संगीत गुरु थे।
बचपन में मेरे संगी साथी अधिक न थे। दो ही मित्र थे मेरे, चचेरे भाई बिहारी और दिलीप जो रिश्ते में मेरा भतीजा था। बिहारीभाइ का एकमात्र शौक था मोटर गाड़ियों के खिलौने खरीदना और उन्हीं से खेलना। उनके पास रंग-बिरंगी सैकड़ों मोटर गाड़ियाँ थी, जिन्हें वे एक अलग कमरे में करीने से सजाकर रखते और बारी-बारी से उन्हें निकालकर कपोल-कल्पित सड़कों पर दौड़ाते थे। मैं भी नियमित रूप से उनके इस खेल में शरीक होता। मोटर गाड़ियों वाले कमरे से लेकर बाहरी बरामदों, सीढ़ियों और सहन में हमने कई सड़कें चौराहें, यहाँ तक की पुर्णियाँ, कटिहार और कुर्सेला जैसे स्थानों की भी कल्पना कर ली थी। बीच-बीच में कई पेट्रोल पंप भी थे। हम तीनों अपनी पसंद की मोटर गाड़ी लेकर हूँ-हूँ करते हुए उन सड़कों पर कभी कम तो कभी अधिक स्पीड में मोटर दौड़ाते थे।
इन मोटरगाड़ियों के खेल से मुझे एक दूरगामी लाभ हुआ, जब हम अपनी-अपनी मोटर लेकर खेला करते तब निकट के बैठक कमरे में मेरे बड़े काका अपने शागिर्दों को शास्त्रीय संगीत की तालीम दे रहे होते थे। पूरा वातावरण संगीतमय हो जाया करता था। कभी ललित, कभी जौनपुरी, तो कभी मियाँ की टोड़ी जैसी रागिनियों की अवतारणा होती रहती, और हम अपने नन्हे-नन्हे श्रवणेन्द्रियों से उसका रसपान करते हुए अपनी मोटर गाड़ियों को दौड़ाते रहते। उस सुमधुर संगीत ने शनैः शनैः मुझे उस छोटी उम्र में ही गान रसिया बना दिया था। जैसे ही काकाजी किसी लंबी तान या बहलावा करके मुखड़े पर आकर ठहरते वैसे ही मेरी मोटरकार भी रुक जाती और मैं तल्लीन होकर गुनगुनाने लगता। इस प्रकार सात-आठ साल की छोटी उम्र में ही, मैं काकाजी का अप्रत्यक्ष शागिर्द हो गया था। बाद में उनके शागिर्दों में से एक होने का गौरव मुझे भी प्राप्त हुआ। लेकिन मैं उस गौरव को संभाल न सका। मैंने उनसे विद्या ग्रहण करने में कभी वह निष्ठा और एकाग्रता नहीं रखी जो मुझसे अपेक्षित थी। इस बात का पछतावा मुझे जीवन भर रहेगा।
काकाजी और उनके शागिर्दों के बीच गुरु-कुल परंपरा के अनुरूप ही शिक्षा-दीक्षा का प्रावधान था। शागिर्दी के आरंभिक दिनों में विशेष जिज्ञासु होना अपेक्षित न था। गुरुदेव के साथ बस गाते रहना और शनैः शनैः संगीत की बारीकियों से अवगत होते जाना, यही हमारे गुरुकुल की रीत थी। एक बार जब मैं कालेज की छुट्टियों में घर आया तो काकाजी ने शुक्ल-विलावल के एक खयाल से हमारी तालीम के क्रम को आगे बढ़ाया जो बचपन से ही मुझे बेहद पसंद था।
'कल ना पड़त मोहे, निस दिन अरी दई, बिरहा अगन मोरे तन में जरी दई'।
मेरे खुशी की सीमा न रही और मैं मन लगा कर सीखने लगा। लेकिन कुछ ही दिनों में छुट्टियाँ खत्म हुईं और मेरी तालीम अधूरी रह गई। अगली छुट्टियों में जब मैं घर आया तो गुरुदेव मेरे गुरुभाई 'जित्तन' को जौनपुरी सिखा रहे थे और मैं भी वही सीखने लगा। एक दिन मैंने हिम्मत कर के गुरुदेव को याद दिला ही दिया
'काकाजी, वो गाना बताइये ना!'
'कौन सा?' उन्हों ने पूछा
'शुक्ल विलावल' मैंने तपाक से कहा
काकाजी मुस्करा उठे और और उन्हों ने मुझसे पूछा
'अच्छा, कल ना पड़त? तुम्हें कैसे मालूम कि ये शुक्ल बिलावल है?'
अब मैं बड़ी मुश्किल में पड़ा। क्या जवाब देता। हकलाने लगा
'अ अ अ ऐसे ही'
'ऐसे ही क्या?' काकाजी ने कहा और हँस पड़े।
उसी दिन से एकबार फिर वे मुझे शुक्ल बिलावल सिखाने लगे। लेकिन उस दिन के बाद कई महीनों तक उन्हों ने मेरा नाम ही रख दिया 'शुक्ल बिलावल'। जब भी मुझ पर उनकी नजर पड़ती 'शुक्ल बिलावल' कह कर मुझे छेड़ते थे।  कभी डाँटा नहीं, फटकारा नहीं। लेकिन एक अनूठे ढंग से अपनी बात बता गए। मुझे सबक मिल गया।
असल में गुरुदेव के साथ, बार-बार, बस गाते दोहराते हुए, स्थायी-अंतरे को आत्मसात करना था मुझे। आहिस्ते आहिस्ते राग की जटिल बारीकियों से अवगत होना था, एक एक कर सीढ़ियों को चढ़ना था। एकबारगी नहीं।
रोजाना नियमित तालीम के बाद नियमित रेयाज़ भी अपेक्षित था शागिर्दों से। गाने वाला कमरा, हमलोग जब भी खाली पाते थे, शुरु हो जाते थे। दिन, दोपहर, शाम, कभी भी। जब हमलोग तल्लीन हो कर गा रहे होते थे तो कई बार गुरुदेव दरवाजे की ओट में खड़े होकर हमारा रेयाज़ सुन जाया करते थे। बाद में तालीम के समय कहते थे
'ठीक ही गा रहे थे' बस इस जगह पर थोड़ी कसर रह गई' यहाँ इस तरह से सुर लगाना है'
और उसी जगह से खुद शुरु हो जाते थे।
आज काकाजी हमारे बीच नहीं हैं। माँ-बाप, गुरु-गुरुपत्नी, कोई भी नहीं। लगभग सभी ज्येष्ठ-श्रेष्ठ गुरुभाई भी चल बसे। कुमार जयानंद सिंह, कुमार शंकरानंद सिंह, सीताराम झा, शक्तिनाथ झा, सभी चले गये। बस उनकी यादें रह गयी हैं, जो बार-बार अतीत के पन्नों से निकल कर हमारे सामने जीवंत हो उठती हैं। मन में एक टीस सी
उठती है
 ' दैय्या कहाँ गए वो लोग, ब्रज के बसैय्या'
     
 



संगीत-भास्कर, संगीत-सुधाकर
राजकुमार श्यामानन्द सिंह
      
बनैली-चंपानगर के राजकुमारों में सबसे ज्येष्ठ राजकुमार श्यामानन्द सिंह का जन्म 27-07-1916 को हुआ। यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि उनके जन्म से मातापिता को अलभ्य लाभ हुआ क्योंकि     तीन पुत्रियों के जन्म और एक पुत्र की शैशवावस्था में मृत्यु हो जाने के बाद श्यामानन्द का जन्म हुआ था। राजा और रानी, श्यामानन्द को माँ श्यामा का प्रसाद समझते थे। परंतु उनके अग्रज की अत्यल्पायु ने उन्हें झकझोर कर रख दिया था। अतः श्यामानन्द के जन्म के अवसर पर कोई उत्सव न हुआ। दो वर्षो के बाद जब राजा कीर्त्यानन्द सिंह और रानी प्रभावती देवी को कुमार विमलानन्द सिंह नामक दूसरे पुत्रारत्न की प्राप्ति हुई, तब राजा ने दोनों वारिसों के जन्मोत्सव की औपचारिक घोषणा की और लगभग एक माह तक महल में हर्षोल्लास मनाया गया।
बाल्यावस्था में कुमार श्यामानन्द अत्यंत नटखट थे और औपचारिक शिक्षा के प्रति उनका तनिक भी लगाव न था। फिर भी उन्हें पूर्णियाँ जिला स्कूल में दाखिला करवाया गया और बाद में रायपुर के राज-कुमार कॉलेज में भी भेजा गया। बाद में मिस्टर और मिसेज बेलेटी को निजी प्रशिक्षक के रूप में रख कर श्यामानंद को समुचित और राजोचित शिक्षा-दीक्षा दिलवायी गयी।
16 वर्ष की आयु में, 10-06-1932 को सरिसब निवासी श्रोत्रिय पिनाकर झा की पुत्री, निर्मला से श्यामानन्द सिंह का विवाह हो गया। लगभग उसी समय से कुमार साहेब को संगीत के प्रति एक विशेष लगाव हुआ जो आगे चलकर उनके व्यक्तित्व और उनके जीवन की पहचान बनी। श्यामानन्द ने अपने बहनोई बाबू दुर्गानन्दन सिंह से हारमोनियम बजाना सीखा और कुछ ही दिनों में अच्छी तरह क्लैरिनेट भी बजाने लगे।
संगीत-शिक्षा की दिशा में उनके जीवन में उस समय एक महत्वपूर्ण मोड़ आया जब 19350 में दार्जिलिंग की यात्रा करते समय खरसांग के एक ग्रामोफोन की दुकान में उन्होंने कलकत्ता के भीष्मदेव चटर्जी का रेकॅर्ड सुना। वे भीष्मदेव जी के गायन से अत्यधिक प्रभावित होकर उस रिकॉर्ड को खरीद कर घर ले आए और उसे बार-बार सुना। राग रागेश्वरी-बहार और पटदीप की उस प्रस्तुति ने कुमार साहेब को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने भीष्मदेव चटर्जी से गायन-कला सीखने का दृढ संकल्प ले लिया।
       19360 में अनुज कुमार जयानन्द सिंह के उपनयन-संस्कार के शुभ अवसर पर उस्ताद भीष्मदेव चटर्जी को बनैली चंपानगर अपना गायन प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया गया। उनके गायन से श्यामानन्द इस हद तक प्रभावित हुए कि एक शिशु की तरह बिलख कर रो पड़े। उन्होंने भीष्मदेव जी को अपना गुरु बनने के लिए मना लिया।
       दुर्भाग्यवश 19380 में राजा कीर्त्यानन्द की मृत्यु हो गई। राजा के ज्येष्ठ पुत्र होने की वजह से श्यामानन्द सिंह से यह अपेक्षित था कि वे अपने परिवार के कर्ता के रूप में राज्य-काज सँभालें। परंतु संगीत साधना में अनुरक्त रहने के कारण सांसारिक कार्यकलापों के प्रति उनकी कोई रुचि न थी। अतः उन्होंने  संपूर्ण पारिवारिक और राजकीय जिम्मेदारी अपने छोटे भाइयों को सौंप दिया। कहा जाता है कि जब ब्रिटिश सरकार ने उन्हें राजा बहादुर की उपाधि से सम्मानित करना चाहा तब उन्होंने इस पदभार को लेने में असमर्थता जतायी और कहा 'मैं एक संगीतकार हूँ, राजा नहीं'
       हाँ, यह एक अलग बात है कि ताउम्र, जनसाधारण द्वारा सम्मानित और संपूजित रहते हुए वे 'राजा' ही कहलाते रहे। उनकी मृत्यु के समय 19940 में, बनैली-राज को समाप्त हुए लगभग 37 वर्ष बीत चुके थे, फिर भी ।
       1936 से 19390 तक श्यामानन्द जी ने नियमित रूप से चटर्जी महोदय से तालीम पायी। परंतु जब 19390 में भीष्म देव जी ने पोण्डीचेरी के अरविन्द-आश्रम में दाखिला ले लिया तब कुमार साहब की संगीत शिक्षा में व्यवधान हुआ। बाद में अपने गुरु की इच्छानुसार उन्होंने आगरा के उस्ताद बाचू खाँ साहेब को चंपानगर आने का आग्रह किया। 1940 से 1962-630 तक श्यामानन्द जी बाचू खाँ से संगीत की तालीम पाते रहे और भारतीय शास्त्रीय गायन की बारीकियों को सीखते रहे। उपरोक्त दोनों गुरुओं के अलावा कुमार साहेब ने उस्ताद मुज्जफर खाँ, उस्ताद मुबारक अली खाँ, पं0 भोलानाथ भट्ट, पं0 केदार जी, पं0 महावीर मल्लिक, और पं0 यदुवीर मल्लिक सरीखे सुख्यात गायकों से संगीत की शिक्षा ली।
       यद्यपि कुमार साहब ने कभी अपनी कला को व्यवसायिक न बनाया, फिर भी उनका संगीत, भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रशंसकों के बीच अत्यंत लोकप्रिय हुआ। वे बंदिश और भजन गायन में तो निष्णात थे ही, उनके पास ख्याल के बंदिशों और ठुमरी का अमोघ संग्रह था। उन्होंने सदैव बंदिश की प्रस्तुति को अति महत्वपूर्ण समझा और ऐसा मानते रहे कि बंदिश की कलापूर्ण और सही प्रस्तुति की कमी होने पर, गायन में भाव और रस का सृजन असंभव था।
       कुमार साहब अक्सर कहा करते थे 'रूह से गाओ, गले से नहीं'। एक बार पूर्णियाँ में वे बिहार के तत्कालीन गर्वनर मो0 ज़ाकिर हुसैन के समक्ष गायन की प्रस्तुति कर रहे थे। हुसैन साहब गायन से इतने प्रभावित हुए कि मंच पर आकर उन्होंने कुमार को गले से लगा लिया और कहा कि 'कुमार साहब गाते नहीं, इबादत करते हैं'। गजेन्द्र नारायण सिंह लिखते हैं 'बनैली स्टेट के कुमार श्यामानंद सिंह को बंदिश गाने में जैसी दक्षता हासिल थी कि केशर-बाई से लेकर बड़े-बड़े गाने-बजाने वाले कुमार साहब के फ़न के कायल थे। यदि विश्वास न हो तो पंडित जशराज से पूछ लिजिए। कुमार साहब से बंदिशें सुनकर यशराज जी बच्चों की तरह बिलख-बिलख कर रोने लग गए कि काश वैसी महारत उन्हें भी हासिल होती।'
       एक बार प्रसिद्ध गायिका सुरश्री केशर बाई चंपानगर आयी हुई थीं। तब उन्हें कुमार साहेब का सर्वाधिक लोकप्रिय भजन 'दुख हरो द्वारिका नाथ' सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ। उक्त भजन की प्रस्तुति से वे इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने इस भजन को सीखने की इच्छा व्यक्त की। वे बाकायदा गंडा बाँध कर कुमार साहेब की शागिर्द बनने को तैयार हो गयीं। कुमार साहब से यह भजन सीख कर केशर बाई ने कई अवसरों पर इसे प्रस्तुत भी किया और हर बार श्यामानन्द जी का जिक्र करती रहीं। आगरा वाले उस्ताद विलायत खाँ ने अपनी पुस्तक 'संगीतज्ञों के संस्मरण' में लिखा है 'बिहार में कुमार श्यामानंद सिंह से बेहतर संगीत के मर्मज्ञ और कद्रदाँ नहीं हैं'।
       कुमार श्यामानन्द सिंह के कई शागिर्द हुए। पर कोई भी उनकी उँचाईयों को न छू सका। ऐसा कहा जा सकता है उनके किसी शिष्य में संगीत की बारीकियों को ग्रहण करने की वह क्षमता नहीं थी जिससे वे श्यामानन्द सिंह के सच्चे और लायक शागिर्द कहलाते। उनके शागिर्दों में से एक होने का गौरव मुझे भी प्राप्त हुआ। भारी मन से मैं यह कबूल करता हूँ कि मैंने उनसे विद्या ग्रहण करने में कभी वह निष्ठा और एकाग्रता नहीं रखी जो मुझसे अपेक्षित थी। इस बात का पछतावा मुझे जीवन भर रहेगा।
       कुमार श्यामानंद अखिल भारतीय संगीत नाटक एकेडेमी के प्रांतीय प्रतिनिधि थे। इतना ही नहीं वे सरिसव ग्राम स्थित 'विश्वेश्वर कला निकेतन' के प्रधान संरक्षकों में से एक थे। विश्वेश्वर कला निकेतन ने ही श्यामानन्द को 'संगीत भास्कर' की उपाधि से सम्मानित किया था।
     इलाहाबाद के प्रयाग संगीत समिति के प्रधान संरक्षकों में से एक राजकुमार श्यामानन्द सिंह भी थे। उन्होंने 19-12-1948 को इलाहाबाद में आयोजित अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में कनवोकेशन भाषण प्रस्तुत किया था। पूर्णियाँ प्रांत में भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने 'कलाकार संघ' नामक एक संगीत संस्था की स्थापना की जिसके तत्वावधान में पूर्णियाँ में कई संगीत सम्मेलनों का आयोजन किया गया। कई वर्षों तक वे 'कलाभवन पूर्णियाँ' के अध्यक्ष पद पर कार्यरत रहे और बाद में उन्हीं के संरक्षण में 19910 में 'श्यामानन्द सारंग' नामक एक संगीत संस्था का गठन किया गया। ध्यातव्य है कि जीवन के अंतिम दिनों में हर सप्ताह 'सारंग' में पधार कर श्यामानन्द जी  शिक्षार्थियों को शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित किया करते थे।
       अखिल भारतीय संकीर्तन महामंडल के सक्रिय सदस्य के रूप में कुमार साहब का योगदान अविस्मरणीय रहेगा। पूर्णियाँ, कटिहार, सहरसा, मधेपूरा, सुपौल और किशनगंज जिले के हर छोटे बड़े कीर्तन समारोह में वे अपनी उपस्थिति से लोगों को उत्साहित करना नहीं भूलते थे। अगम्य और बीहड़ स्थानों पर भी वे अपनी मोटर कार हाँकते हुए पहुँच कर लोगों को अचंभित कर देते थे। कीर्तन-धर्म के प्रति उनके इस अखण्ड निष्ठा ने जनसाधारण को इतना प्रभावित किया कि वे राजर्षि के रूप में पूजनीय हो गए।
       जीवन के अंतिम दिन में आकाशवाणी के क्रेन्द्रीय संग्रहालय द्वारा उनके गायन ओर इंटरव्यू की सात घंटे की रिकॉर्डिंग की गई जो दिल्ली के अभिलेखागार में सुरक्षित है।


1 comment:

Atulesh said...

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